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१६. यदि यह भरा-पूरा समस्त लोक भी (किसी) एक को दे दिया जाए
(तो) उससे भी वह सन्तुष्ट नहीं हो पाएगा, ऐसी 'दुष्पूर' (कठिनता से तृप्त होने वाली) है यह आत्मा ।
१७. जैसे-जैसे लाभ होता है, वैसे-वैसे लोभ भी (समृद्ध) होता है।
लाभ से लोभ (और भी अधिक बढ़ जाता है। दो माशे (सोने से पूरा) होने वाला कार्य करोड़ (सुवर्ण-मुद्राओं) से भी पूरा नहीं हो पाया।
१८. छाती में फोड़े (की तरह स्तनों) वाली, विविध चित्त (कामनाओं)
वाली तथा (उन) राक्षसी (जैसी ज्ञानादिरूप सर्वस्व धन का हरण करने वाली तथा काम-वासना में उत्तेजक स्त्रियों) में आसक्ति न रखे, जो पुरुषों को प्रलोभित कर, (उन्हें खरीदे गए) दासों
के समान (बना कर उनसे) खेलती रहती हैं। १६. स्त्री-सम्पर्क का त्यागी अनगार (साधु) स्त्रियों में आसक्ति न
रखे, और (साधु जीवनोचित) धर्म को (ही) हितकारी व सुन्दर जानकर, भिक्षु उसमें अपने को स्थापित करे ।
इस प्रकार से, विशुद्ध प्रज्ञा के धारक कपिल (केवली मुनिवर) ने यह धर्म कहा है। जो इसका अनुष्ठान करेंगे, वे तो (संसार सागर को) पार करेंगे, और उन (लोगों) के द्वारा (ही) दोनों लोक (इहलोक व परलोक) आराधित (अर्थात् सफल) कर लिए गए। -ऐसा मैं कहता हूँ।
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अध्ययन-८
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