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अध्ययन-सार :
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स्नेह व आसक्ति से दूर रह कर ही दोषों से मुक्त रहा जा सकता है। विषय-वासना से भरे विवेक-शून्य जीवन वाला व्यक्ति कफ में मक्खी की तरह फंस कर दुर्गति को प्राप्त होता है, किंतु धीर पुरुष ही काम-भोगों का अतिदुष्कर त्याग कर सकते हैं।
सदाचारी व संयमी व्यक्ति प्राण-वध से सर्वथा दूर रहता है। फलस्वरूप पाप-भावनाएं उसमें उसी प्रकार नहीं ठहर पातीं जिस प्रकार ऊंचे टीले पर पानी स्वत: बह जाता है। साधु-जीवन अपनाने वाले को रस-लोलुपता से अवश्य बचना चाहिए, और निर्दोष, संयम-सहायक नीरस आहार का ही ग्रहण करना चाहिए।
लक्षण-शास्त्र, निमित्तशास्त्र आदि विद्याओं का प्रयोग कर जीवन-निर्वाह करने वाला व्यक्ति 'श्रमण' कहलाने योग्य नहीं होता। साधु होकर भी सांसारिक सुख-आसक्ति से पूर्ण व संयमहीन जीवन व्यतीत कर वह निम्न कोटि के देवों में जन्म लेता है, और उसके लिए 'बोधि' दुर्लभ हो जाती है।
यह एक महत्त्वपूर्ण 'सत्य' है कि चाहे कितना ही लाभ होता चला जाये, परन्तु 'लोभ' में कमी नहीं आती, प्रत्युत् लोभ में और भी अधिकं वृद्धि होती चली जाती है, यहां तक कि समस्त लोक की सम्पदा को प्राप्त कर भी व्यक्ति सर्वथा अतृप्त बना रहता है।
लोभ के त्याग के साथ-साथ साधु के लिए यह भी अनिवार्यतः अपेक्षित है कि वह स्त्री-सम्पर्क का भी सर्वथा त्याग करे, ताकि संयमी जीवन दुष्प्रभावित न हो।
उपर्युक्त धर्म की सम्यक् आराधना करने वाले संसार-समुद्र को पार करते हैं और दोनों लोकों को सफल बनाते हैं-सम्यग् आराधित करते हैं।
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उत्तराध्ययन सूत्र