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________________ १. अध्रुव (अस्थिर), आशाश्वत (अनित्य) एवं दुःखबहुल (इस) संसार में वह कौन सा कर्म (अनुष्ठान) है, जिस (के आश्रयण) से मैं दुर्गति में न जाऊं? आठवाँ अध्ययन : कापिलीय २. भिक्षु (असंयम या सगे-सम्बन्धियों आदि के साथ) पूर्व (में स्थापित) सम्बन्धों को छोड़ने के अनन्तर, किसी (पदार्थ) में भी स्नेह (आसक्ति भाव) न करे । (यहां तक कि) स्नेह करने वालों के प्रति (भी) स्नेहरहित होता हुआ भिक्षु 'दोषों' (इस लोक के दुःखों) से, तथा 'प्रदोषों' (पर लोक में प्राप्त होने वाले दुःखों) से मुक्त हो जाता है । ३. इसलिए, ('केवल') ज्ञान व ('केवल') दर्शन से परिपूर्ण, मोह रहित, मुनिश्रेष्ठ (कपिल) ने सभी प्राणियों के हित व मोक्ष (या हितकारी मोक्ष) हेतु, तथा उन' (पांच सौ चोरों) को (कर्मों के बन्धन से) छुड़ाने के लिए (इस प्रकार ) कहा : ४. भिक्षु इस प्रकार के (कर्म-बन्ध के हेतुभूत) सभी परिग्रहों तथा “कलह' (क्रोध, वाक्कलह आदि, तथा इनके कारणों) का परित्याग करे । सभी प्रकार के काम (मनोज्ञ रूप-रसादि) भोगों के समूह में (कटु परिणति को) देखता हुआ, स्वयं का तथा षट्काय-जीवों का रक्षक (तायी/त्रायी मुनि उनमें) लिप्त नहीं हुआ करता । १. एक बार कपिल मुनि को विहार करते हुए मार्ग में ५०० चोर मिले। उन चोरों को प्रतिबोध देने के लिए महामुनि कपिल ने यह उपदेश दिया । अध्ययन-८ S ११७ Q5 BOO
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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