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________________ दुःख सदा के लिये दूर हो जायें? दो माशे सोने से आरम्भ होने वाली आकांक्षा पूरा राज्य मांगने तक जा पहुंची और फिर भी सन्तुष्ट नहीं हुई। लोभ से लाभ, लाभ से लोभ और लोभ से लाभ बढ़ता चला जाता है। तृष्णा का यह चक्र मनुष्य को समाप्त कर देता है। स्वयं समाप्त नहीं होता। यह उनकी अनुभूति का विषय था। ऐसा विषय जो परम ज्ञान का स्रोत बन गया। ____ काम-भोग, परिग्रह, हिंसा, रस-लोलुपता, मिथ्या ज्ञान, तृष्णा.....इन सभी के रूप में मिथ्यात्व के दंश कपिल मुनि ने सांसारिक अवस्था में स्वयं सहे थे। फिर तीन करण-तीन योग से उनका त्याग किया था। उस त्याग का आनन्द अपने रोम-रोम में खिलते देखा था। मिथ्यात्व के दंश और संयम का आनन्द, दोनों उनके अनुभूत सत्य थे। सत्य का यह ज्ञान उनके अनुभव से आया था। यही ज्ञान जब उन्होंने दूसरों को दिया तो दूसरों तक पहुंचते ही यह उन सब का अनुभव भी बन गया। इस अनुभव को उन सब ने जीया। परिणामत: उन सब के भाव-क्षितिज से भी ज्ञान का सूर्य उगा। उनका भी रोम-रोम प्रकाश के आनन्द से खिल उठा। उनका भी जीवन परम सार्थकता का सोपान बन गया। __कपिल केवली का वही ज्ञान प्रस्तुत अध्ययन की गाथाओं में मुखरित है। इस ज्ञान के परिचय-क्षेत्र में आने वाली किसी भी भव्य आत्मा को सांसारिकता में फंसने से बचाना और भवसागर में संयम की छिद्र-रहित नौका प्रदान करना इसका प्रयोजन है। भव-बंधन सशक्त होते हैं। सांसारिकता आसानी से नहीं छूटती। कपिल मुनि की कथा स्पष्टत: कहती है कि जो साधक अपने सांसारिक अनुभवों पर चिन्तन करता है, वही संसार का सत्य समझकर उसके सशक्त बन्धनों से मुक्त होने की दिशा में आगे बढ़ सकता है। सांसारिक आकांक्षा से प्रेरित विद्या-अध्ययन भी सुखद फलप्रद नहीं होता। अपने पिता जैसी पद-प्रतिष्ठा प्राप्त करने की आकांक्षा से कपिल मुनि द्वारा सांसारिक अवस्था में किया गया अध्ययन उनके ज्ञान का स्रोत नहीं बना। उनके ज्ञान का स्रोत बनी वह साधना, जो उन्होंने सांसारिकता को त्याग कर की। उसी के परिणामस्वरूप वे सर्वज्ञ हुए। सांसारिकता को अनेक संदर्भो में यहां स्पष्ट किया गया है। उसकी शक्ति से साधक को सचेत किया गया है। दुर्गति के विविध कारणों का ज्ञान प्रदान करने के साथ-साथ सद्गति के निर्धारक जीवन को जीने की सबल प्रेरणा व प्रभावोत्पादक कला प्रदान करने के कारण भी प्रस्तुत अध्ययन की स्वाध्याय मंगलमय है। 00 अध्ययन-८ ११५
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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