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अध्ययन परिचय
प्रस्तुत अध्ययन में बीस गाथायें हैं। इस अध्ययन का केन्द्रीय विषय है-मिथ्यात्व का त्याग व संयम का स्वीकार। संसार के लिए जीना मिथ्यात्व है ओर आत्मा के हित में जीना संयम। संयम ही मानव-जीवन का सर्वोत्तम उपयोग है। सर्वज्ञ कपिल मुनि के मुखारविन्द से यह उपदेश श्रावस्ती व राजगृही के बीच अट्ठारह योजन के जंगल में पांच सौ चोरों ने ग्रहण किया था। वैराग्य व संयम से परिपूर्ण श्रमण-जीवन अंगीकार कर उन सभी ने आत्मकल्याण किया। कपिल केवली का उपदेश होने के कारण इस अध्ययन का नाम 'कापिलीय' रखा गया।
इसकी विशेषता है कि यह उपदेश आत्मानुभूतिपरक है। गेय है। चार पदों वाले ध्रुवक छन्द में निबद्ध है। कपिल मुनि ने इसे गाया था। सामान्यतः उपदेश को गाया नहीं जाता। गद्य में प्रतिपादित किया जाता है। यह उपदेश गाया गया। इसलिये कि यह कपिल मुनि का स्वानुभूत सत्य था। इसके एक-एक अंश से उनका जीवन प्रत्यक्षतः संबद्ध था। यह उनके अनुभव से उपजा था। अनुभूतियां उनके ज्ञान का विषय बनी थीं और ज्ञान उनकी अनुभूतियों का विषय बना था। इसीलिये यह गेय रूप में उजागर हुआ। चोरी जिनका धर्म था, वे भी इसे जान, समझ और अनुभव कर बदल गये। अनुभूत ज्ञान अनुभूतियों तक पहुंचा। अनुभूतियां खिल उठीं।
कपिल मुनि सांसारिक अवस्था में एक दासी के प्रेम-पाश में बंधे थे। वे अनुभव से जानते थे कि पूर्व संयोगों का पूर्णतः त्याग किये बिना आत्मकल्याण के मार्ग पर बढ़ा नहीं जा सकता। मोह की खोह का अंधकार उन्होंने देखा था। इसके शिकार होकर उन्होंने जाना था कि यह मधुर विष है। पहले आकर्षित करता है। फिर तड़पा-तड़पा कर मारता है। पाप के अंधे कुएं में ढकेल देता है। इस तरह कि उद्धार के उजाले की एक किरण भी दुर्लभ हो जाये।
कपिल मुनि सांसारिक अवस्था में दो माशे सोने की आकांक्षा के साथ घर से निकले थे। चोर समझ कर पकड़े गये थे। छोटी-सी आकांक्षा ने ही उन्हें चोरी के आरोप में फंसा दिया था। फिर उन्हें राजा से मुंह मांगा वरदान मिला अपने सत्य के कारण, अपनी सरलता के कारण। सत्य का परिणाम भी उन्होंने अनुभव किया। उन्होंने सोचना शुरू किया कि क्या मांगा जाये, जिस से सारे
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उत्तराध्ययन सूत्र