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रूप थे। अनेक उपसर्गों को समता-पूर्वक सह कर भिक्षाचरी तप जीया करते थे। कषायों को वे जीत चुके थे। आजीवन विगय ग्रहण नहीं किये। रस-परित्यागी थे। साधना, सेवा और क्षमा के आदर्श थे। संवत् 1979 में उन्होंने देह विसर्जित की। उसके तीन शिष्यों में द्वितीय थे-श्री रामजीलाल जी म.। योगिराज श्री रामजीलाल जी महाराज :
पूज्य गुरुदेव श्री मायाराम जी म. के प्रभावक जीवन की अंतिम प्रतिबोधित कृति थे-गुरुदेव योगिराज। चौबीस वर्ष की युवावस्था में 16 नवम्बर, सन् 1914 को संयम-मार्ग पर कदम रखा। फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा। निष्काम योग के शिखर तक पहुंचे। सेवा का आदर्श जीया। करुणा एवम् व्यापक वात्सल्य से सम्पन्न थे। समस्त पर-भाव से विमुक्त थे। एषणा-विजेता थे। आठों प्रवचन-माताओं के आराधक थे। निर्मल संयम के प्रतिरूप थे। ऊनोदरी, आतापना, प्रतिसंलीनता, विनय, भिक्षाचरी, रस-परित्याग, व्युत्सर्ग आदि तप-साधनाओं से विभूषित थे। कषाय-विजेता थे। अनेक सिद्धियों से संपन्न थे। इनके चार शिष्य हुए, जिन में ज्येष्ठ शिष्य हैं-गुरुदेव मुनि श्री रामकृष्ण जी म.। संघ-शास्ता शासन-सूर्य आचार्य-कल्प गुरुदेव मुनि श्री रामकृष्ण जी म.:
संयम, ज्ञान, सृजन व धर्म-प्रभावना के समन्वित रूप गुरुदेव श्री ने पच्चीस वर्ष की युवावस्था में चैत्र शुक्ल त्रयोदशी, संवत् 1995 को 'महावीर जयन्ती' के पावन दिन मुनि-दीक्षा का वीर-व्रत धारण किया। वर्षों तक कठोर स्वाध्याय-साधना की। अनेक भाषाओं तथा ज्ञान के अनेक क्षेत्रों पर निर्धान्त अधिकार अर्जित किया। विद्वद्जगत् पर अपनी बहुमुखी सर्जनात्मक प्रतिभा की अमिट छाप अंकित की। परम सहजावस्था और प्राणीमात्र पर करुणा को जीया। अहिंसा-विषयक नवीन चिन्तन प्रदान किया। सेवा को सामाजिक आन्दोलन बनाया। धर्म की युगानुरूप प्रेरणा को जीने में गुरुदेवश्री अब भी जागृत हैं।
पूज्य गुरुदेव के श्री चरणों में मुझे (सुभद्र मुनि को) दीक्षाभिव्रत स्वीकृत करने का परम सौभाग्य मिला। गुरु-चरणों के सेवक (इन पंक्तियों के लेखक) ने सन् 1964 में गुरुवर्य योगिराज श्री रामजीलाल जी म. की कृपा से यह सौभाग्य पाया। पूज्य संघशास्ता गुरुदेव श्री के सात प्रशिष्य हैं-श्री रमेश मुनि जी म., श्री अरुण मुनि जी म., श्री नरेन्द्र मुनि जी म., श्री अमित मुनि जी म., श्री हरि मुनि जी म., श्री प्रेम मुनि जी म. और श्री सुकृता मुनि जी म.।
-सुभद्र मुनि