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अवस्त्र हो शीत परीषह को जीता। पौत्र शिष्य मुनि मायाराम के स्वास्थ्य-लाभ की कामना से आजीवन बेले-बेले पारणे का क्रम जीया। जीवन के 25 चातुर्मासों में से प्रत्येक चातुर्मास को न्यूनतम मासखमण तप से अवश्य विभूषित किया। जीवन-भर मात्र छह द्रव्यों (रोटी, पानी, खिचड़ी, कढ़ी, छाछ, औषध) व सात वस्त्रों का ही प्रयोग किया। श्वासोच्छ्वास को तप का संगीत बना देने वाले तपस्वी जी म. ने संवत् 1944 में संल्लेखना-समाधिपूर्वक स्वर्गारोहण किया। इन के एकमात्र शिष्य थे-श्री हरनामदास जी म.। श्री हरनामदास जी महाराज : ___ निष्काम साधुता के प्रतिमान थे-श्री हरनामदास जी म.। यश की तनिक भी आकांक्षा जीवन के किसी कोने तक में न थी। इस का ही परिणाम है कि इन के जीवन-परिचय देने वाले तथ्य आज अनुपलब्ध हैं। दूसरे शब्दों में यश और स्तुति से पूर्णतः निरपेक्ष रहने वाली साधुता ही इन का जीवन-परिचय है। महाप्राण मुनि मायाराम जैसे तेजस्वी शिष्य की रचना के माध्यम से इन्होंने संयम का आगामी इतिहास रचा। स्वयं गुमनाम रह कर धर्म-प्रभावना का उज्ज्वल इतिहास रचने वाले इन महामुनि के तीन शिष्य हुए, जिन्होंने पंजाब श्रमण-परम्परा के रत्न-त्रय के रूप में ख्याति व प्रतिष्ठा अर्जित की। इन में प्रथम शिष्य थे-श्री मायाराम जी म.। संयम-सुमेरु महामुनि श्री मायाराम जी महाराज :
तेईस वर्ष की युवावस्था में माघ शुक्ल 6, संवत् 1934 को मुनि-जीवन का शुभारम्भ करने वाले चारित्र-चूड़ामणि महाप्राण मुनि श्री मायाराम जी म. भगवान् महावीर की वाणी को अपने जीवन में प्रतिबिम्बित, साकार व सार्थक करने वाले मुनिराज थे। अत्यंत मधुर व तेजस्वी गायक थे। तीस जैन आगम उन्हें कण्ठस्थ थे। उठने वाला उनका एक-एक क्षण से जैन धर्म की अद्भुत प्रभावना हुई। निम्नवर्ग से राजा और युवकों से वेश्याओं तक समाज के प्रत्येक वर्ग ने अहिंसा का आलोक उन से पाया। सोते हुए भी जागृत रहने वाले इस युगपुरुष ने संवत् 1969 में नश्वर देह त्याग दी। लाखों-करोड़ों अनुयोइयों के मन-वचन-कर्म में गुणानुवाद बन कर वे अमर हो गये। उनके सात शिष्य हुए, जिन में अंतिम थे-श्री सुखीराम जी म.। श्री सुखीराम जी महाराज :
संवत् 1959, पौष शुक्ल षष्ठी को पैंतालीस वर्ष की वैराग्य-परिपक्व अवस्था में संयम अंगीकार करने वाले श्री सुखीराम जी म. क्षमा-धर्म के साकार