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रु-परम्परा
शासनपति श्रमण भगवान् महावीर द्वारा प्रदत्त ज्ञान गुरु-शिष्य परम्परा के माध्यम से यात्रा करता हुआ वर्तमान तक पहुंचा। उस ज्ञान के गौरव-शिखर 'उत्तराध्ययन सूत्र' के प्रकाशन के पावन अवसर पर उस महान् गुरु-परम्परा के चरण-कमलों में अत्यंत कृतज्ञतापूर्वक नमन करना अपेक्षित भी है और वांछनीय भी। प्रस्तुत परिचय इस नमन-भाव का ही रूप है।
आचार्य सुधर्मा स्वामी महावीर-शासन के प्रथम पट्टधर थे। आचार्य देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण इस शासन के सत्ताईसवें पट्टधर हुए। पंजाब मुनि परम्परा में वीर-शासन के छियासीवें आचार्य श्री अमरसिंह जी म. थे। आचार्य श्री अमरसिंह जी महाराज : ___पंचनद की ज्योतिर्मयी श्रमण-परम्परा के प्रभावक आचार्य हुएश्री अमरसिंह जी म.। छत्तीस वर्ष की अवस्था में गुरुप्रवर पण्डित श्री रामलाल जी म. से संवत् 1898, वैशाख कृष्णा द्वितीया के दिन चांदनी चौंक, दिल्ली में इन्होंने मुनि-दीक्षा अंगीकार की। स्वाध्यायशीलता, धर्माभ्युदय-निष्ठा व समाज-सुधारक तेजस्विता के समन्वित स्वरूप श्री अमर सिंह जी म. ने संवत् 1913, वैशाख कृष्णा द्वितीया को आचार्य पद विभूषित किया। छिहत्तर वर्षीय यशस्वी जीवन जी कर आचार्य सम्राट ने समाधिपूर्वक देह विसर्जित की। इन के बारह शिष्य हुए, जिन में चतुर्थ थे-श्री रामबख्श जी म.। आचार्य श्री रामबख्श जी महाराज :
संवत् 1908 में जयपुर में पच्चीस वर्षीय श्री रामबख्श जी ने मुनि-दीक्षा ली। स्वाध्याय के सागर में ज्ञान-रत्न प्राप्त करने का आनन्द निरन्तर पाया। परिणामतः तल-स्पर्शी ज्ञान-गरिमा से आलोकित हुए। पंचनद श्रमण-परम्परा के लोक-विश्रुत महाश्रमण श्री मायाराम जी म. के ये आगम-धारणा प्रदाता गुरु थे। संवत् 1939 में आचार्य पद पर आसीन हुए और मात्र 21 दिन पट्टधर रह कर, देह विसर्जित कर गये। इन के पांच शिष्यों में तृतीय थे-श्री नीलोपद जी म.। तपस्वी श्री नीलोपद जी महाराज :
पैंतालीस वर्ष की तप-साधना से परिपक्व श्रावकावस्था में संवत् 1919 में मुनि-दीक्षा धारण की। निरन्तर एकान्तर तप किया। कड़ी से कड़ी सर्दी में भी