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भूमिका
उत्तराध्ययन का उदगम :
'उत्तराध्ययन सूत्र' का उद्गम करुणा-कुशल शासनपति श्रमण भगवान् महावीर के मुखारविन्द से हुआ। यह भगवान् महावीर के जीवन की अन्तिम घटना है। प्रभु का अंतिम वर्षावास अपापापुरी में था। चातुर्मास का अंतिम चरण था। वर्तमान अवसर्पिणी काल के चतुर्थ आरे को व्यतीत होने में तीस वर्ष व साढ़े आठ महीने का समय शेष था। पावापुरी के राजा हस्तिपाल की रज्जुक सभा में षष्ठ-भक्त तप से सुशोभित भगवान् विराजमान थे। युग-युगों से प्यासी जीवात्माओं की भाव-भूमि पर परम कल्याण का अमृत निरन्तर बरसा रहे थे। वह अमृत-वाणी पाकर वहां उपस्थित सभी देवी-देवता, मनुष्य व पशु-पक्षी धन्य हो रहे थे। भविष्य में धन्य होने वाली अनेक आत्माओं के लिये परम मंगल का आधार निर्मित हो रहा था। प्रभु की देशना जारी थी।
भगवान् ने पुण्य-फल-दायक पचपन एवम् पाप-फल-दायक पचपन अध्ययनों का ज्ञान (विपाक सूत्र) लोक को प्रदान किया। तत्पश्चात् अपृष्ट व्याकरण के छत्तीस उत्तर अध्ययनों का ज्ञानामृत बरसाया। 'प्रधान' नामक मरुदेवी के अध्ययन का वर्णन करते हुए प्रभु परम समाधि में लीन हो गये। सभी योगों का त्याग कर वे निर्वाण पद को प्राप्त हुए। परम मंगल-रूप आत्म-ज्योति इस धरा से विलीन हो गई। ___महाप्रभु ने निर्वाण प्राप्त करने से पूर्व परम कल्याण के स्रोत ज्ञानालोक को प्रदान किया। ज्ञान का वह अक्षय प्रकाश बना रहा। भव्य आत्माओं के पथ प्रकाशित करता रहा। आत्म-कल्याण सम्भव होता रहा। ज्ञान का वही अक्षय प्रकाश है-'उत्तराध्ययन सूत्र'। भगवान् की