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१२. देवों के काम-भोगों के सामने मनुष्य (जीवन से सम्बन्धित) काम-भोग भी उसकी तरह (हजार कार्षापणों की तुलना में काकिणी के समान नगण्य) हैं, (क्योंकि मनुष्य-आयु व मानवीय काम-भोगों की तुलना में) दिव्य (देवों के) कामभोग व आयुष्य हजार गुणा अधिक होते हैं ।
१३. प्रज्ञावान् (ज्ञानी) व्यक्ति की (देवलोकादि में) अनेक 'नयुत' वर्ष (असंख्यात काल) की जो (दीर्घकालीन दिव्य सुख की) स्थिति होती है, उसे जानते-समझते हुए भी उन (दिव्य सुखों या वर्षों) को दुर्बुद्धि (प्राणी) सौ वर्षों से भी कम आयु के पापमय जीवन) में हार जाता है ।
१४. जैसे, तीन बनिए (व्यापारी) 'मूल' पूँजी लेकर (व्यापार-हेतु घर से) निकले, उनमें से एक (तो मूल से अतिरिक्त) लाभ प्राप्त करता है, (जबकि) एक (सिर्फ) 'मूल' (पूँजी) के साथ लौटता है ।
१५. (उनमें से एक बनिया 'मूल' (पूँजी) को भी गंवा कर लौट आता है । व्यवहार में (जो) यह उपमा (उदाहरण) है, उसी तरह 'धर्म' के विषय में (भी) जानना-समझना चाहिए ।
१६. मनुष्यत्व 'मूल' (धन के समान) है, देव-गति (की प्राप्ति हो जाना) 'लाभ' है । जीवों के 'मूल' (मनुष्य योनि) को नष्ट कर देने से-गंवा देने से, (तो) नरक व तिर्यञ्च गति (की प्राप्ति) निश्चित है ।
अध्ययन-७
१७. अज्ञानी (जीव) के लिए वध-मूलक (जीव-वध आदि से प्राप्य, वध-घात आदि की प्रमुखता से युक्त) तथा आपदा-रूप (नरक व तिर्यञ्च-ये) दो गतियां (प्राप्य रह जाती) हैं, (क्योंकि) रस लोलुपता व वंचकता से युक्त (व्यक्ति) देवत्व और मनुष्यत्व (-इन दो सुगतियों) को (तो पहले ही) हार चुका होता है ।
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