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________________ था। वे उस राजा की तरह हैं, जो रस-लोलुपता के वशीभूत हो कर कुपथ्य आम्र -फल का सेवन कर प्राण छोड़ देता है। उनके लिये आम्र-फल जैसे क्षणिक स्वाद राजकीय व दिव्य सुखों से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं। वे उस वणिक-पुत्र की तरह होते हैं, जो मूलधन को बढ़ाने या ज्यों का त्यों सुरक्षित रखने के स्थान पर नष्ट या समाप्त कर देता है। वे देव-गति की सुव्यवस्था कर मनुष्य-जीवन-रूपी मूलधन को नहीं बढ़ाते। मनुष्य-गति का उपार्जन कर मूलधन ज्यों का त्यों भी नहीं रखते। तिर्यंच या नरक गति तक पहुंचाने वाले कर्म करते हुए वे मूलधन भी खो देते हैं। कुशाग्र-स्थित जल-बिन्दु जैसे क्षणिक सुखों के लिये वे महासागर जैसे गहन व व्यापक दिव्य सुखों को छोड़ देते हैं। विषयासक्त रहना वस्तुत: इसी प्रकार के अज्ञान-पूर्ण जीवन को जीना है। पाप-पूर्ण जीवन को जीना है। दुर्गति-निर्धारक जीवन को जीना है। कुल्हाड़े पर स्वयं अपना पांव मारना है। अपने लिये अनेक वेदनाओं व यातनाओं का प्रबन्ध करना है। अपनी आत्मा को कर्म-मल से लादते रहना है। उसके स्वरूप को विकृत करते रहना है। उसे संसार-सागर में भटकाते रहना है। उसके कल्याण को असम्भव बनाने में लगे रहना है। उसे परतन्त्र बनाये रखना है। आत्मा को स्वतंत्रता, निर्मलता व मुक्ति की ओर अग्रसर करने वाला मार्ग है-अनासक्ति का मार्ग। संयम का मार्ग। इस मार्ग पर चलने वाला साधक इन्द्रियों की दासता से मुक्त होता है। वह मन पर शासन करता है। विवेकसम्मत जीवन जीता है। पाप-मल रहित जीवन जीता है। सुगति-निर्धारक जीवन जीता है। अपनी आत्मा को कर्मों से मुक्त करने वाला जीवन जीता है। उसे उसका स्वरूप प्रदान करने वाला जीवन जीता है। उसके परम कल्याण को सम्भव बनाने में वह क्षण-प्रतिक्षण दत्त-चित्त रहता है। उसकी स्वतन्त्रता उसके लिये मूल्यवान् होती है। उसी का मनुष्य-जन्म प्राप्त करना सार्थक होता है। प्रस्तुत अध्ययन के रूप में उजागर होने वाला ज्ञान सार्थकता का स्रोत है। निरर्थकता व सार्थकता में भेद करने वाली दृष्टि प्रदान करने के कारण भी प्रस्तुत अध्ययन की स्वाध्याय मंगलमय है। अध्ययन- ७ ६६ *
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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