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________________ RELA ६. कर्मों से (दुःखादि) 'विपाक' को प्राप्त हो रहे व्यक्ति को दुःख से छुड़ाने में, अचल तथा चल सम्पत्ति, धन-धान्य व (अन्य बहुमूल्य) घरेलू साधन (भी) समर्थ नहीं हुआ करते । ७. सब (प्राणियों) को (इष्ट-अनिष्ट आदि) सभी की ओर से (होने वाला सुख-दुःखादि) 'आत्म-केन्द्रित' हुआ करता है और (इसलिए) सभी प्राणियों को अपनी 'आत्मा' (तथा अपनी आयु व स्व-रक्षा) प्रिय होती है-इसे देख-समझ कर, भय व वैर (भावना) से विरत (साधक भिक्षु) प्राणियों के प्राणों का घात न करे । ८. 'आदान' (परिग्रह या अदत्तादान) को 'नरक' (या नरक का कारण) देख-समझ कर (एक) तृण का भी 'आदान' (परिग्रह या चुराने का काम) न करे । (धर्मादि में असमर्थ शरीर, असंयम या पाप के प्रति) जुगुप्सा (अरुचि) रखने वाला (या आत्म-निन्दक मुनि) स्वयं के पात्र में (गृहस्थादि) द्वारा दिए गए (आहार) का (ही) सेवन करे । ६. इस संसार में कुछ (एकान्तवादी) तो ऐसा मानते हैं कि पापों का प्रत्याख्यान (त्याग) किये बिना ही 'आर्य' या आचार (तत्वज्ञान या स्व-स्वसम्प्रदाय-सम्मत आचार-व्यवहार) को जानकर (ही प्राणी) सब दुःखों से मुक्त हो जाता है । १०. (कुछ एकान्त-ज्ञानवादी) बन्ध व मोक्ष (दोनों) की प्रतिज्ञा (प्रतिपादन) करने वाले बोलते (तो बहुत-कुछ) हैं, किन्तु (सिद्धान्त को ) क्रियान्वित नहीं करते, (ऐसे लोग) वाणी - मात्र की शक्ति से स्वयं अपने को आश्वस्त करते रहते हैं। अध्ययन-६ ६१ 5
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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