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________________ ६. “ये काम-भोग तो (मेरे) हाथ में हैं, (किन्तु) भविष्य के (पर लोकादि-सुख) अनियत काल में प्राप्त होने वाले (अर्थात् संदिग्ध) हैं। (और फिर) पर लोक है (भी) कि नहीं- (इसे) कौन जानता है?" ७. “मैं (तो सब) लोगों के साथ रहूंगा (चलूंगा)"-इस तरह अज्ञानी व्यक्ति धृष्टता करता है, और काम-भोगों में (अपनी) अनुरक्ति के कारण 'क्लेश' (ही क्लेश) पाता है। ८. फिर वह त्रस व स्थावर प्राणियों में 'दण्ड' (हिंसा का प्रयोग) प्रारम्भ करता है। (वह) सप्रयोजन या निष्प्रयोजन (भी) प्राणियों के समूह का वध करने लगता है। ६. (वह) हिंसक, असत्यभाषी, मायावी, चुगलखोर व धूर्त अज्ञानी व्यक्ति मद्य व मांस का भोग (सेवन) करता हुआ (अपने उक्त कार्य को) 'यह कल्याणकारी है'-ऐसा (ही) मानता है। १०. वह शरीर व वचन से मदमत्त होकर, धन व स्त्रियों में आसक्ति रखता हुआ, द्विविध रूप से (अर्थात् राग-द्वेष से, मन-वचन से, तथा इहलोक-परलोक हेतु) (कर्म) मल को उसी प्रकार संचित करता रहता है जैसे 'शिशुनाग' (केंचुआ/अलसिया मुख व शरीर से) मिट्टी को (मुख से खाता है, और शरीर में लपेटता भी है)। ११. परिणामतः, रोगादि (आतंक) से आक्रान्त होकर खिन्न होता हुआ परिताप करता है, और (अपने) कर्मों की अनुप्रेक्षा (चिन्तन-स्मरण) करते हुए परलोक से भयभीत होता है। अध्ययन-५ ७५
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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