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________________ अंकित कर उनके मंगलमय होने की कामना करता है। महाभारत (5/4/7-8) में इसे 'मांगलिक' प्रतीक घोषित किया गया है। स्वस्तिक को मांगलिक रूप में प्रयुक्त होने के प्रमाण 6 हजार साल वर्ष पुराने भित्तिचित्रों से प्राप्त होते हैं। हिटलर इसे आर्यजाति की श्रेष्ठता का प्रतीक मानता था और इसलिए उसने इसे अपने झंडे में प्रयुक्त किया था। जैन मान्यतानुसार अष्ट-मांगलिक द्रव्यों (द्र. औपपातिक-49, ज्ञाताधर्मकथा-1/153) तथा तीर्थंकरादि महापुरुषों के शरीर में लक्षित 18 लक्षणों में भी स्वस्तिक परिगणित है (द्र. आदिपुराण 1 5/3744)।सुमेरु पर्वत की जिस पांडुक शिला पर तीर्थंकर का सानाभिषेक होता है उस पर भी स्वस्तिक बना रहता है। जिस शिला पर बैठकर तीर्थंकर केशलोंचपूर्वक जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करते हैं उस पर इन्द्राणी पहले ही रत्नचूर्ण से स्वस्तिक बना देती है। सातवें तीर्थंकर सुपार्श्व का लांछन भी स्वस्तिक था और एक अत्यन्त प्राचीन पार्श्व- प्रतिमा के ऊपर बने सप्त फणों में से एक फण के ऊपर भी स्वस्तिक बना हुआ है (वह प्रतिमा लखनऊ के राजकीय संग्रहालय में है)। यह स्तनितकुमार भवनपतिदेवों का भी चिह्न (वर्धमान) माना जाता है (द्र. तत्त्वार्थसूत्र-भाष्य-4/11)। ध्यानरूपी साधना में भी स्वस्तिक-युक्त अग्नितत्त्व का ध्यान किया जाता है (द्र. ज्ञानाणव- 34/16-17)| भूमि शुद्धि, वेदी प्रतिष्ठा आदि में भी मांगलिक विधान के पूर्व स्वस्तिक बनाया जाता है। (स्वस्तिक का पूर्ण विकसित रूप:-) एक खड़ी रेखा को उतनी ही बड़ी एक पड़ी रेखा समद्विभाजित करती है और इस धनात्मक चिन्ह के चारों सिरों से एक-एक रेखा जो उक्त खड़ी या पड़ी रेखा से आधी लम्बी होती है, समकोण बनाती हुई प्रदक्षिणा-क्रम से खींची जाती है। इन चारों रेखाओं के Um.75
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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