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________________ (ग्रामादि निवास की मर्यादा-) भिक्षु को एक ही स्थान पर बने रहने से वहां के लोगों के प्रति अत्यधिक राग या द्वेष होने की सम्भावना होती है और हिंसादि दोष से जीवन-चर्या के दूषित होने की आशंका भी। अतः दोनों परम्पराओं ने भिक्षु के लिए ग्राम-नगर आदि में ठहरने की कालमर्यादा का निर्धारण किया है। इसी तरह वर्षा-काल में चार मास तक 'चातुर्मास' करने का भी विधान किया है। वैदिक परम्परा के संन्यासोपनिषद् (1 अध्याय) में निर्देश है: ग्रामे एकरात्रं चरे पंचरात्रं चतुरो मासान् वार्षिकान् ग्रामे वा नगरे वापि वसेद् । अर्थात् ग्राम में अधिकाधिक एक रात, नगर में पांच रात, तथा वर्षाकाल में ग्राम हो या नगर, वहां चार मास तक निवास करे। भागवत (7/13/1) में भी संन्यासी को गांव में एक रात ठहरने का संकेत किया गया है। इसी तरह की काल-मर्यादा का जैन परम्परा में भी निर्धारण दृष्टिगोचर होता है। (द्र. मूलाचार- (9/19/) 794) गामेयरादिवासी, णयरे पंचाहवासिणो धीरा। जैन परम्परा में ‘वर्षावास' (चातुर्मास) में विहार न करने तथा एक ही स्थान पर ठहरने के पीछे कारणों का संकेत करते हुए कहा गया है कि वर्षावास में विहार करने से जीवों की विराधना (हिंसा) होती है (द्र. बृहत्कल्प भाष्य, गाथा- 2736-37, आचारांग सूत्र- 2/ 3/1/111)।अतः उपर्युक्त निवास की मर्यादा की पृष्ठभूमि में 'अहिंसा' धर्म का अनुष्ठान ही प्रमुख उदेश्य सिद्ध होता है। पर्व व त्यौहार मनुष्य समाज की बुद्धिमान् इकाई है। उसमें धर्म और समाज का स्वरूप अन्तर्व्याप्त रहता है। उसकी अन्तश्चेतना को अनुप्राणित करने के लिए अनेक पर्व और त्यौहारों का आयोजन जैन धर्म एवं वैदिक धर्म की प्राकृतिक एकता 65
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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