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जैन परम्परा में भी भिक्षु के लिए 'अकुतोभय' (भयभीत नहीं करने वाला और भयभीत नहीं होने वाला) होने का निर्देश प्राप्त होता है (द्र. आचारांग- 1/1/2 सू. 22, सूत्रकृतांग- 1/6/23, ज्ञानार्णव8/51/523 आदिआदि)।
(निर्दोष भिक्षाचर्या-)
दोनों परम्पराओं में उदरभरण का साधन 'भिक्षाचर्या' माना गया है। जैन आगमों में श्रमण का पर्याय 'भिक्षु' भी है (उत्तराध्ययन 1/1, दशवैकालिक-1/1) भिक्खं चर (मूलाचार- 1/4)- अर्थात् भिक्षा हेतु विचरण करो- यह निर्देश भी जैन परम्परा में प्राप्त होता है। वैदिक परम्परा में भी नारदपरिव्राजकोपनिषद् (5/1) में स्पष्ट निर्देश है-भिक्षामात्रेण जीवी स्यात्, अर्थात् मात्र भिक्षा मांग कर ही जीवनयापन करे।
भिक्षा मांगने को दोनों परम्पराओं में 'गोचरी' नाम दिया गया है। उपनिषद् में निम्नलिखित स्पष्ट निर्देश हैं जिनमें गौ की तरह भिक्षा चर्या करने का विधान बताया गया है:
गोवत् मृगयते मुनिः (संन्यासोपनिषद् 2/78, नारदपरिव्राजकोपनिषद्, 5/11)। गोवृत्त्य भैक्षमाचरेत् (परमहंसपरिव्राजकोप.)।
जैन परम्परा में भी मुनि द्वारा (गोचराग्रगतो मुनिःदशवैकालिक-5/2, उत्तराध्ययन- 2/29 आदि) गोचरी करने का उल्लेख प्राप्त होता है।
(गोचरी का अभिप्राय:-)
जैसे गाय की दृष्टि आभूषणों से सुसज्जित सुन्दर युवती के शृंगार पर नहीं, अपितु उसके द्वारा लायी गई घास पर रहती है, वैसे ही साधु को भी दाता तथा उसके वेश एवं भिक्षा-स्थल की सजावट आदि के प्रति या आहार के रूखे-चिकनेपन आदि पर
जेन धर्म एवं वैदिक धर्म की सार तृतिक वाता/64