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________________ बोलने-चालने में असावधानी से अहिंसा व्रत में दोष लग सकता है, अपनी वाणी से किसी दूसरे के मन को पीड़ा पहुंचा कर उसके हिंसा-दोष लगना सम्भावित है- इस दृष्टि से जैन भिक्षु भाषा समिति व वचोगुप्ति का पालन करता है, वह यतनापूर्वक, संयम-पूर्वक भाषण करता है, वैसे यथासम्भव तो मौन ही रहने का प्रयास करता है (द्र. उत्तराध्ययन- 2/25, 24/9-1 आचारांग-2/4/1 सू. 52, दशवैकालिक- 7/36,385,387, 8/4849,835,838, 9/5 आदि-आदि)।वैदिक परम्परा में भी उपनिषद् का निर्देश है- नापृष्टः कस्यचित् ब्रूयात् (संन्यासोपनिषद्- 2/12) अर्थात् बिना पूछे किसी से बातचीत न करे। (समता की साधना-) संन्यासी व जैन भिक्षु- दोनों को ही 'समता का साधक' माना गया है। महाभारत (6/36/1 3), गीता (2/1 5) तथा नारदपरिव्राजकोपनिषद् (5/37, 6/25) आदि में संन्यासी को 'समदुःखसुख' अर्थात् प्रतिकूल परिस्थितियों में भी समभाव धारण करने वाला बताया गया है। जैन परम्परा में भी समता को श्रमणत्व का मूल बताते हुए (समयाए समणो होइ-उत्तराध्ययन- 25/32) श्रमण के समभावी स्वरूप को प्रख्यापित किया गया है (द्र. उत्तराध्ययन 19/ 91, 19/26, प्रवचनसार- 3/41, दशवैकालिक-1/525)। वैदिक परम्परा का संन्यासी 'अभयदाता' माना गया हैनारदपरिव्राजकोपनिषद् (5/15) में कहा गया है अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्वा चरति यो मुनिः। . न तस्य सर्वभूतेभ्यो भयमुत्पद्यते क्वचित् ॥ - - जो मुनि समस्त प्राणियों को 'अभय' देता हुआ विचरण करता है, उसे भी सभी प्राणियों से कभी भयभीत नहीं होना पड़ता। प्रथम खण्ड/63
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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