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समान ही) हैं-अहिंसा सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह (ठाणांग5/1/1)। इनमें अहिंसा व्रत की ही प्रधानता है, क्योंकि सत्य आदि चारों व्रत अहिंसा के ही पल्लवित रूप हैं। व्रत व यम एक ही अर्थ को व्यक्त करते हैं। इसीलिए भगवान् पार्श्वनाथ का धर्म ‘चातुर्याम' कहा गया है और भगवान् महावीर का धर्म ‘पंचयाम' । भगवान् पार्श्वनाथ ने पांचों यमों को इन चार वर्गों में समेट लिया थाअहिंसा, सत्य, अस्तेय और बाह्य परिग्रह-विरति।
भगवान् महावीर ने सामयिक अपेक्षाओं को ध्यान में रखकर 'बाहपरिग्रह-विरति' के स्थान पर ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह- इन दो व्रतों को मान्यता दी, अतः उन्हें पंचयाम धर्म का उपदेष्टा कहा जाता है (द्र. उत्तराध्ययन सूत्र-23/23-27)। वस्तुतः पंचयाम धर्म उक्त चातुर्याम का ही विस्तारित रूप था, कोई नया व्रत उसमें समाहित नहीं किया गया था। क्योंकि पार्श्वनाथ के समय में स्त्रीपरिग्रह व अब्रह्मचर्य को बाह्य परिग्रह में ही संनिहित माना जाता था।
अग्निकायजीवों की हिंसा के भय से जैन भिक्षु अग्नि नहीं जलाता (द्र.सूत्रकृतांग-1/7/5, दशवैकालिक-6/295-298) वैदिक परम्परा में भी, सम्भवतः उक्त भावना से भिक्षु को अनग्निसेवी- अर्थात् अग्नि जलाने आदि से दूर (द्र. परमहंसपरिव्राजकोषनिषद्) बताया गया है।
मार्ग में चलते हुए भिक्षु के पैरों से किसी जीव का वध नहीं हो जाए, इसलिए सम्भावित हिंसा से बचने के लिए जैन भिक्षु 'ईर्यासमिति' का पालन करता है- बहुत सावधानीपूर्वक, साढ़े तीन हाथ प्रमाण सामने की भूमि को ठीक से निहारता हुआ वह विचरण करता है (द्र. आचारांग-2/3/1 सू. 469-47, प्रश्रव्याकरण-2/1 सू. 1 1 3, उत्तराध्ययन सूत्र-4/7, 24/6-7 आदि) वैदिक परम्परा में भी भिक्षु के लिए इसी तरह का निर्देश प्राप्त होता है
_ समीक्ष्य वसुधां चरेत् (मनुस्मृति-6/68)। ... - जमीन को देख-भाल कर (ही) चले, विचरण करे।
जैन धर्म एता पनि धर्म को सारतति dil,62
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