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संन्यासी या भिक्षु गृहत्यागी होता है। उसके गृहत्याग को वैदिक परम्परा में 'अनिकेत' (द्र. नारदपरिव्राजकोपनिषद्-7/2, परमहंसपरिव्राजकोपनिषद्) शब्द से तथा जैन परम्परा में अनगार (उत्तराध्ययन सूत्र-1/1) नाम से संकेतित किया गया है।
महाभारत (12/21/5) के अनुसार प्राणियों के प्रति द्रोह छोड़कर व्यक्ति ‘ब्रह्मरूप' हो जाता है । प्राणातिपात (हिंसा) से विरत दयावान्, इन्द्रियसंयमी व वीतराग व्यक्ति कर्म-बन्धनों से छट जाते हैं (महाभारत-13/144/7-9)। याज्ञवल्क्य उपनिषद् में परिव्राजक (संन्यासी) के लिए अपरिग्रही व अद्रोही विशेषण प्रयुक्त किये गये हैं। वैदिक पद्मपुराण (3/59/19) में भिक्षु के लिए अहिंसक होने का निर्देश है- प्राणिहिंसानिवृत्तश्च मौनी स्यात् सर्वनिःस्पृहः ।
जैन परम्परा में भी भिक्षु/साधु के लिए समस्त (षट्जीवनिकाय) जीवों के प्रति अहिंसक रहने की अनिवार्यता बताई गई है। जिनवाणी के कुछ सन्दर्भ यहां प्रासंगिक हैं:- पाणे य णाइवाएज्जा (सूत्रकृतांग-1/8/2)- भिक्षु किसी प्राणी की हिंसा न करे।न विरुज्झेज्ज केण वि (सूत्रकृतांग-1/11/12) किसी के भी साथ विरोध/द्रोह न करे । न हणे पाणिणो पाणे (उत्तराध्ययन-6/7) - किसी भी प्राणी को न मारे, आदि-आदि।
वैदिक परम्परा के योगशास्त्र के अनुसार प्रत्येक आध्यात्मिक साधना के लिए पांच यमों का पालन करना अनिवार्य है। वे हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह (द्र. योगसूत्र. 2/3 व व्यास-भाष्य, कूर्मपुराण-2/11/13 आदि)। परमहंस परिव्राजकोपनिषद् (5/16) में परिव्राजक के लिए इन यमों की रक्षापालना करना अपेक्षित माना गया है- ब्रह्मचर्यापरिग्रहाहिंसासत्यं यत्नेन रक्षयन्।
जैन परम्परा में पंच महाव्रतों का पालन भिक्षु के लिए अनिवार्य माना गया है। ये पांच महाव्रत (उपर्युक्त पांच यमों के
प्रथम खण्ड/61