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समय में प्रशस्त भाव रखने चाहिएं। अप्रशस्त भावों के साथ मृत्यु प्राप्त करने पर अप्रशस्त गति में जाना पड़ सकता है।
जैन परम्परा में भावों की प्रशस्तता-अप्रशस्ता का मानदण्ड 'लेश्या' के रूप में वर्णित हुआ है। मृत्यु-समय प्रशस्त-अप्रशस्त भावों (लेश्या) के सुप्रभाव-दुष्प्रभाव को जैन आगम में इस प्रकार व्यक्त किया गया है:
जल्लेस्साई दब्वाइं परिआइत्ता कालं करेइ, तल्लेस्सेसु उववज्जइ (भगवती सूत्र-3/4/17-19)।
___ -अर्थात् व्यक्ति जिस-जिस लेश्या (मनोभाव) को रख कर मृत्यु प्राप्त करता है, वह मरने के बाद उसी मनोभावों के साथ उत्पन्न होता है।
इसी तथ्य को हृदयंगम कर, जैन परम्परा में संलेखना (समाधि-मरण) का विधान किया गया है जो गृहस्थ श्रावक व प्रव्रजित श्रमण- दोनों के लिए अनुष्ठेय है । 'संलेखना' की विधि की पृष्ठभूमि में प्रेरक निर्देश यही है कि अनासक्त, निर्भय, शान्तचित्त होकर मृत्यु का वरण करना चाहिए (द्रष्ट व्यः उपासक दशांग-1 /5 7,1/11, ज्ञाताधर्म कथा-1/2 8, रत्नकरण्डश्रावकाचार-122-1 26, पुरुषार्थसिद्धयुपाय- 5/3-5/177-179, तत्त्वार्थसूत्र-7/22,37 आदि)।
(2)अहिंसक श्रमण-चर्या और संन्यस्त जीवन:
वैदिक परम्परा के 'संन्यासी' तथा श्रमण/जैन परम्परा के भिक्षु/साधु की सामान्य चर्याएं पर्याप्त साम्य रखती हैं- (यद्यपि अपनी-अपनी परम्परा की मौलिकता के अनुरूप उनमें अन्तर तो है ही)। दोनों की जीवन-चर्या अहिंसा, निष्कामता, समता, निष्परिग्रहता व संयत वृत्ति से ओतप्रोत है- यह तथ्य दोनों परम्पराओं के धार्मिक साहित्य के अनुशीलन से परिपुष्ट होता है।
जैन धर्म तोदिक धर्म की साकृतिक एकता/60