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________________ (अतिथि-सत्कारादि) त्याग व दान की प्रवृत्ति के प्रतीक 'अतिथि-भोजनदान' को दोनों धर्मों में आदर प्राप्त है । वैदिक परम्परा में अतिथि को भोजनादि से सत्कृत करना 'मनुष्ययज्ञ' माना गया है (नृयज्ञोऽतिथिपूजनम्मनुस्मृति, 3/70)। वाल्मीकि रामायण के अनुसार, रामचन्द्र जी ब्राह्मण या श्रमण, जो भी अतिथि के रूप में आते, भोजनादि से सन्तुष्ट करते थे (वाल्मीकिरामायण- 14/22)। वैदिक धर्म को मानने वाला प्रत्येक गृहस्थ न केवल अतिथियों को, अपितु अपने भोजन में से पशु-पक्षियों को भी यथोचित अन्न-दान देकर ही भोजन करता है (मनुस्मृति- 3/92, विष्णु पुराण- 3/11/51-56)। .. जैन परम्परा में भी श्रावक के लिए 'अतिथि संविभाग' व्रत (शिक्षाव्रतों में) का विधान है। आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार लोभ मनोविकार (कषाय) हिंसा रूप ही है, उसका त्याग करने की दृष्टि से अतिथि-संविभाग' व्रत का विधान किया गया है (पुरुषार्थसिद्व्युपाय4/136-137/172-173)। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार वह दान चार प्रकार का होता है- आहारदान, वस्त्रदान, पात्रदान व आवासदान (हैम योगशास्त्र3/87)। यहां यह ज्ञातव्य है कि उक्त दान में पात्रता-अपात्रता का विचार करना भी अपेक्षित है (द्र. तत्त्वार्थसूत्र-7/38-39)। (जल छान कर पीना) जैन परम्परा में श्रावक के लिए जल छान कर पीने का विधान है। जीव-हिंसा से बचने के लिए जल को छानना आवश्यक है ताकि उसमें विद्यमान जीव उससे पृथक् हो जाएं। जैन विद्वान् पं. आशाधर ने 'सागारधर्मामृत' ग्रन्थ में 'जलगालन' (छान कर जल पीने) को श्रावक के मूलगुणों के रूप में वर्णित किया है :(द्र. सागारधर्मामृत-2/18, पृ. 63)। जैन धर्मादिक धर्म को सास्तविक चिता 585
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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