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________________ है और यह मानती है कि ईश्वर अपने अंशों से या पूर्ण रूप से इस संसार में जन्म लेता है। जैन परम्परा का मानना है कि अनादि कर्म-बन्धनों में बंधी आत्मा अपने तप-संयम-साधना के पुरुषार्थ से कर्म-बन्धन तोड़कर ईश्वरत्व प्राप्त करती है और पुनः इस संसार में जन्म नहीं लेती। जैन परम्परा के तीर्थंकर वे पुण्यशाली आत्माएं होती हैं जो प्रमुख (आत्मघाती) कर्मों को निर्मूल नष्ट कर असाधारण चमत्कारी स्वरूप को प्राप्त करने में सक्षम होती हैं। वे नियत आयु भोगकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होती ही हैं। ___ उक्त मान्यता-भेद के बावजूद, जैन तीर्थंकरों और वैदिक अवतारों की अवधारणा में कुछ विलक्षण साम्य हैं। गीता के अनुसार, धर्म की स्थापना तथा अधर्म का नाश करने के लिए ईश्वरीय अवतार होता है:धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे (गीता-4/8)। जैन परम्परा के तीर्थंकर भी अपने उपदेश से धर्म-परम्परा को पुष्ट या पुनर्जीवित करते हैं। भगवान् महावीर के लिए पुराणकार ने अपनी भावाभिव्यक्ति इस प्रकार दी है: योऽन्त्योऽपि तीर्थकरमनिममप्यजैषीत्, काले कलौ च पृथुलीकृतधर्मतीर्थः ॥ (उत्तरपुराण-76/546) - अर्थात् भगवान् महावीर ने कलियुग (के अधर्मप्रधान काल) में धर्म-तीर्थ को पुष्ट किया और इस प्रकार अन्तिम तीर्थंकर होते हुए भी अपने पूर्ववर्ती तीर्थंकर (के चातुर्याम धर्म को पंचयाम धर्म के रूप में व्याख्यायित कर उन) से भी कहीं आगे बढ़ गए थे। आचार्य मानतुंग के शब्दों में धर्म-उपदेश की सभा में जिनेन्द्रदेव की जैसी विभूति/महिमा है, वैसी महिमा किसी अन्य की नहीं है (भक्तामर स्तोत्र-37)। जैन धर्म एवं दिक धर्म की सारततिक एकता/54
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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