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नोदभास्यन् यदि ध्वान्तविच्छिदस्त्वद्वचोंशवः । तमस्यन्धे जगत्कृस्नमतिष्ठास्यदिदं ध्रुवम् ।। (आदिपुराण -1/159)
(11) भगवान् ऋषभ का निर्वाण (शिव) कैलाश गिरि पर माघ कृष्णा चतुर्दशी को हुआ था। जैन परम्परा में कल्पसूत्र (सू. 199), जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति (सू. 48) व त्रिषष्टिशलाकापुरूषचरित के अनुसार माघकृष्णा त्रयोदशी को ऋषभदेव का निर्वाण माना जाता है । किन्तु तिलोयपण्णत्ति (11/1185) में चतुर्दशी को इनका निर्वाण माना गया है । हिन्दू परम्परा में उत्तरप्रान्तीय लोग फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को तथा दक्षिणप्रान्तीय लोग माघकृष्ण चतुर्दशी को 'शिवरात्री' का पर्व मनाते हैं ।
ऋषभदेव का निर्वाण माघ कृष्णा त्रयोदशी या चतुर्दशी को हुआ हो, लोगों ने उसी दिन या दूसरे दिन इसे एक समारोह के रूप में मनाया और वह दिन हिन्दू परम्परा में शिवरात्री के रूप में मनाया जाता है ।
( पुरातात्त्विक साक्ष्यों से प्राचीनता:-)
भारतीय सांस्कृतिक इतिहास में शिव और ऋषभदेव - दोनों ही अपनी-अपनी परम्पराओं में प्राचीनतम देव माने जाते हैं । ऐतिहासिक पुरातात्त्विक प्रमाणों से भी इनकी सर्वाधिक प्राचीनता सिद्ध होती है ।
मोहनजोदड़ो (हैदराबाद, सिन्ध) में टीलों एवं भग्नावशेष खंडहरों की खुदाई होने पर जो 5 हजार वर्ष पूर्व की प्राचीन वस्तुएं भूगर्भ से प्राप्त हुईं, उनमें से कुछ मोहरें (स्वर्ण - मुद्रा ) भी हैं । उनमें से प्लेट संख्या 2 से 5 तक की मुहरों पर (सीलों पर) भ. ऋषभनाथ की खड्गासनस्थ नग्न मूर्ति है, और सीलों के दूसरी ओर वृषभ का चिन्ह अंकित है ।
जैन धर्म एवं वैदिक धर्म की सांस्कृतिक एकता 52