________________
चेतस्तस्यां मम रूचिवशदाप्लुतक्षालितांहःकल्माषं यदि भवति किमियं देव! संदेहभूमिः ।
(मुनि वादिराजकृत एकीभाव स्तोत्र-16) कवि भागचन्द ने तो भगवान् की गिरा-गंगा को लेकर एक पूरा रूपक ही प्रस्तुत कर दिया।वे कहते हैं- 'जिन प्रभु की वचनगंगा नाना प्रकार के नयों की लहरियों से नित्य निर्मल बनी रहती है, वह अपार ज्ञान-पारावार के रूप में परिणत होकर जगत् के समस्त जनों को पवित्रता प्रदान करने की क्षमता से युक्त है, और नित्य ही विद्याविलासी साधक रूपी हंसों के समूहों से सुशोभित होती है, वे प्रभु मुझे निरन्तर दर्शन देते रहें।
यदीया वाग्गंगा विविधनयकल्लोलविमला, बृहज्ज्ञानाम्भोभिर्जगति जनतां या या स्नपयति। इदानीमप्येषा बुधजनमरालैः परिचिता, महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु नः ॥
___ (कवि भागचन्दकृत महावीराष्टक-5) इस प्रकार शिव की जटाओं में गंगा का अवतरण, वचनगंगा या ज्ञानगंगा के रूप में ऋषभदेव के साथ बार-बार रूपायित हुआ है।
(1) शिव-विग्रह में चन्द्रमा को उनके मस्तक पर शोभित आभूषण के रूप में अंकित किया गया है। चन्द्रमा में जगत् के अन्धकार को नष्ट करने की क्षमता है, वही उसका उपकार है और वही उसकी सार्थकता है।
जिनसेन आचार्य ने ऋषभदेव की मंगलवाणी को चन्द्रमा की उपमा देते हुए कहा- 'हे नाथ! यदि अज्ञानान्धकार को नष्ट करने वाली आपकी वचनरूपी किरणावली प्रगट नहीं होती तो निश्चित ही यह समस्त जगत् अविद्या के सघन अंधकार में ही डूबा रहता':
प्रसारमा 51
ranARINAGARMAIN