________________
रखने वाले ये सभी जीव मात्र शिव के नैकट्य के कारण परस्पर मैत्री भाव से रहते रहे। जैन साहित्य में तीर्थंकर का ऐसा प्रभाव भी वर्णित है कि उनकी सभा में सभी प्राणी अपना परस्पर वैर भूल कर शान्त भाव से बैठते हैं (द्र. ज्ञानार्णव- 22/26/1172)।
____(8) शिव दीर्घकशी कहे गये हैं। उनका जटा-समूह इतना सघन, ऐसा विस्तृत और इतना कुंचित कहा गया है कि सुर-सरिता गंगा का उद्धत प्रवाह उस केशराशि में विलीन होकर सहस्रों धाराओं में विभाजित हो गया था। भगवान् ऋषभदेव भी दीर्घकशी थे। जैन पुराणों में तो उनके जटाधारी होने के पुष्कल प्रमाण मिलते ही हैं, ऋग्वेद में भी 'वातरशना मुनि' के संदर्भ में उनके केशी रूप का संस्तवन किया गया है:
केश्यनिकेशी विषं केशी बिभर्ति रोदसी, केशी विश्वं स्वदृशे केशीदं ज्योतिरुच्यते।
(ऋग्वेद 1/136/1) नाभिनन्दन ऋषभदेव की जटाजूटें साहित्य और कला में सर्वत्र विख्यात रही हैं। उनकी प्रायः सभी प्राचीन प्रतिमाओं में इन जटाओं का अंकन अनिवार्य रूपेण मिलता है। कहीं सुरूचिपूर्वक गुंथे गये केश-गुच्छ के रूप में और कहीं कांधे या पीठ तक लहराती उन्मुक्त केशराशि के रूप में।
ऋषभदेव की प्रतिमाओं में जटाओं का अंकन उनकी दीर्घकालीन दुर्द्धर तप साधना को रेखांकित करने के लिए किया जाता है। उन्होंने संन्यास धारण करते ही, एक आसन से छह मास की अखण्ड समाधि धारण की थी। स्वाभाविक ही इस कालावधि में उनकी केशलोंच क्रिया, जो प्रति दो माह में होनी चाहिए थी, नहीं हो पाई और उनके बढ़े हुए केशों ने जटाओं का रूप धारण कर लिया।
महाकवि आचार्य जिनसेन (नवमी शताब्दी) ने अपने ग्रन्थ 'महापुराण' के मंगलाचरण में जटाधारी ऋषभदेव का स्तवन करते
PUPाई,49