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________________ यज्ञीय संस्कृति का, विशेषतः पशु- हिंसा वाले यज्ञीय विधिविधानों का समर्थन जैन परम्परा ने कभी नहीं किया। वह तो द्रव्ययज्ञ (भौतिक यज्ञ) को अग्निकायिक जीवों की हिंसा से युक्त होने से पाप कर्म मानती थी (द्र. उत्तराध्ययन सूत्र-12/39), और संयमतपोमय चर्या रूपी ज्ञानयज्ञ की ही प्रचारक व समर्थक रही (उत्तराध्ययन सूत्र-12/41-44)। उक्त यज्ञीय विरोध की भावना वैदिक शिव की कथाओं में भी दृष्टिगोचर होती है। वैदिक परम्परा के भागवत पुराण (के 4/5-6 अध्यायों) में तथा महाभारत (12/284 अध्याय) में शिव को दक्ष-यज्ञ के विध्वंसक के रूप में चित्रित किया गया है । प्रजापति दक्ष यज्ञीय संस्कृति के समर्थक थे। उन्होंने यज्ञ का आयोजन किया। शिव को आमंत्रित नहीं किया। शिव-पत्नी पार्वती, शिव के मना करने पर भी, पिता के यज्ञ-विधान में सम्मिलित होने के लिए गई। वहां अपने पति शिव के प्रति पिता के अपमान-जनक रूख को देख कर वह यज्ञ-कुण्ड की धधकती अग्नि-ज्वाला में कूद पड़ी और भस्मीभूत हो गई। शिव को इस घटना का पता चला तो वे क्रुद्ध हुए। उनके गणों ने आकर दक्ष के उक्त यज्ञ को तहस-नहस कर दिया। बाद में देवताओं के बीच-बचाव करने पर शिव को यज्ञ-भाग में सम्मिलित करने हेतु दक्ष प्रजापति सहमत हो गए। उक्त कथा से आंशिक साम्य लिए हुए एक कथा जैनागम में भी प्राप्त होती है। उत्तराध्ययन सूत्र (के 12 वें अध्ययन, हरिकेशबल) में वर्णित है कि जैन मुनि हरिकेशबल एक यज्ञशाला में गए। यज्ञकर्ता ब्राह्मणों ने उन्हें अपमानित किया तथा भिक्षा नहीं दी। मुनि के भक्त यक्ष-देवों ने ब्राह्मणों को प्रताडित/पीडित किया । ब्राह्मणों ने क्षमा मांगी और वे यक्ष-पीड़ा से मुक्त हो गए। इसी तरह की एक अन्य कथा भी उत्तराध्ययन सूत्र (25 वें अध्ययन 'यज्ञीय') में प्राप्त होती है । जयघोष मुनि यज्ञशाला में गए तो उन्हें भिक्षा नहीं मिली। प्रथम पाण्ड,45
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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