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परम्परा भी ज्ञान-मार्ग का उपदेष्टा ईश्वरीय गुणसम्पन्न (अवतार)व्यक्तित्व मानती है- शिवतुल्यता का निरूपण निश्चित ही असंगत नहीं माना जा सकता है।
जैन परम्परा के पौराणिक साहित्य एवं स्तोत्र साहित्य में जिनेन्द्र देव को, विशेषतः प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को वैदिक शिव के नामों व विशेषणों से सम्बोधित-अलंकृत किया गया है। वे अनेक स्थलों में शिव, शंकर, शंभु, त्रिपुरारि, त्रिनेत्र, कामारि, वृषभध्वज आदि नामों से सम्बोधित किये गए हैं (द्रष्टव्यः जिनसहस्रनाम, आदिपुराण- 24 वां पर्व, समन्तभद्रकृत बृहत्स्वयम्भू स्तोत्र, अकलंकस्तोत्र, मानतुंग-कृत भक्तामर स्तोत्र आदि आदि)।
उपर्युक्त विशेषणों में जो असंगत-से विशेषण प्रतीत होते हैं, उनकी सार्थकता भी जैन साहित्य में बताई गई है। जैसे ऋषभदेव को 'त्रिनेत्र' कहा जाना असंगत-सा लगता है। किन्तु व्याख्याकारों ने सम्यक् ज्ञान या अनन्त ज्ञान रूपी तीसरे नेत्र से युक्त होने के कारण 'त्रिनेत्र' विशेषण की संगति बैठाई है। जैनागम ठाणांग सूत्र (3/4/499) में 'केवलज्ञान' 'केवलदर्शन' एवं भौतिक नेत्र- इन्हें तीन नेत्र बताया गया है | आ. वीरसेन ने धवला (1/25) में कहा है कि सम्यकदर्शन-सम्यकज्ञान व सम्यक चारित्र-ये त्रिरत्न ही त्रिशूल हैं जिन्हें अर्हन्तदेव धारण किये हुए हैं
(तिरदणतिसूलधारिय.....अरहन्ता)।
इसी तरह, अर्धनारीश्वर का जैन परम्परा में तात्पर्य इस प्रकार बताया गया- अर्हन्त देव 8 कर्म-शत्रुओं में से चार घाती कर्मों को नष्ट कर चुके थे, चार कर्मशत्रु शेष थे, अतः 'अर्ध+न+अरि+ईश्वर'- अर्धनारीश्वर ऋषभदेव को कहा जाता है (द्र. आदिपुराण- 25/73) वैदिक परम्परा में अपने वामांग-अर्धभाग में पार्वती को स्थान देने के कारण शिव को अर्धनारीश्वर कहा जाता है।
जोन धर्म पदिक धर्म की साकतिक एकता/44