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वैदिक ईश्वर की त्रिदेवरूपता का दर्शन जैन परम्परा में भी दृष्टिगोचर होता है । वैदिक ब्रह्म की तरह जैन परम्परा का 'परम तत्त्व' 'सत्' पदार्थ है जो समस्त सृष्टि में व्याप्त है। उसके त्रिविध रूप हैं - उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य (नित्यता) । तत्त्वार्थसूत्र (5/3) में 'सत्ता' का लक्षण त्रयात्मक रूप में इस प्रकार बताया गया हैउत्पाद - व्यय - ध्रौव्यात्मकं सत् ।
इसके अतिरिक्त, जैन परम्परा के आदिपरमेश्वर ऋषभदेव में वैदिक परम्परा के ब्रह्मा, विष्णु व शंकर- इन तीनों देवों का स्वरूप समाहित होता हुआ दिखाई पड़ता है।
(ऋषभदेव और वैदिक विष्णु:-)
'वैदिक पुराण 'भागवत' में ऋषभदेव को विष्णु का अवतार माना गया है (द्र. भागवत, 5 / 3 अध्याय) । विष्णु लक्ष्मीपति हैं । जैन परम्परा में ऋषभदेव की स्तुति करते हुए उन्हें 'श्रीपति' आदि विशेषणों से अलंकृत किया गया है (द्रष्टव्यः जिनसहस्रनाम स्तोत्र, पीठिका - 2, 1/4, 8, आदि) । अनन्तज्ञानादि परमैश्वर्य लक्ष्मी को प्राप्त करने के कारण भगवान् जिनेन्द्र का 'लक्ष्मीपति' विशेषण सार्थक है (द्रष्टव्य- लब्धात्म- लक्ष्मीः, वृहत्स्वयम्भू स्तोत्र,, आर्हन्त्यलक्ष्म्या पुनरात्मतन्त्रः, वहीं, 78 आदि) ।
'विष्णु' का निरुक्ति-परक अर्थ है - जो व्याप्त होता है । प्रत्येक जीवात्मा प्राप्त देह में व्याप्त होकर रहता है, इसलिए उसे 'विष्णु' कहा गया है- उपात्तदेहं व्याप्नोति इति विष्णुः - (धवला, 1/1/2 पृ.12, गोम्मटसार, जीवकाण्ड 366 पर टीका) । जिनेन्द्र देव अनन्तज्ञान के धारक होते हैं । उनके ज्ञान में समस्त लोक, दर्पण में प्रतिबिम्ब की तरह, स्पष्ट झलकता है (त्रैलोक्यं सकलं त्रिकालविषयं - अकलंक स्तोत्र1, यदीये चैतन्ये मुकुर इव भावाश्चिदचितः, महावीराष्टक स्तोत्र - 1 ) । उक्त 'सर्वज्ञता' के कारण भी जिनेन्द्र को 'विष्णु' या सर्वव्यापी कहना सार्थक होता है ।
जन धर्म एवं वैदिक धर्म की सांस्कृतिक एकता / 40