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________________ निवास है। उस भवन के ऊपर कूट पर किरण-समूह से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित करने वाली और शाश्वत ऋद्धि को प्राप्त जिनेन्द्रप्रतिमाएं स्थित हैं। आदि तीर्थंकर की वे प्रतिमाएं जटामुकुट रूप शेखर से युक्त हैं। इन प्रतिमाओं के ऊपर वह गंगा नदी (जलधारा के रूप में) इस प्रकार गिरती (अवतरित) हैं मानों वह उनका अभिषेक करना चाहती हो । कमलासन पर विराजमान एवं कमल के मध्य-भाग के वर्ण के उत्तम शरीर वाली उन जिन-प्रतिभाओं का जो स्मरण करते हैं, उन्हें वे निर्वाण देती हैं। - यहां यह उल्लेखनीय है कि भारतीय सभ्यता व संस्कृति का विकास गंगा आदि नदियों के तटों पर हुआ था। हिन्दू धर्म में आस्थावान् प्रत्येक व्यक्ति की 'गंगा' पर पूर्ण श्रद्धा रहती है। मृत्यु के बाद भी भौतिक शरीर की राख गंगा आदि नदियों में डाली जाती है। चिर काल से चली आ रही गंगा के प्रति उक्त दृढ आस्था का जैन परम्परा पर भी प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। समन्वय की प्रक्रिया ने वैदिक व जैनइन दोनों परम्पराओं को व्यावहारिक क्षेत्र में पर्याप्त निकट ला दिया और गंगा-सम्बन्धी उक्त जैन पौराणिक निरूपणों को इसी पृष्ठभूमि में देखना चाहिए। सारांश यह है कि जैन परम्परा में प्राप्त गंगामाहात्म्य धार्मिक दृष्टि की अपेक्षा, समन्वयात्मक सांस्कृतिक महत्त्व को अभिव्यक्त करने की दृष्टि से देखना चाहिए। (8) जैन तीर्थंकर ऋषभदेव और वैदिक त्रिदेवः वैदिक परम्परा में ईश्वर एक माना गया है। वह संसार की व्यवस्था के लिए तीन रूप धारण करता है। सत्त्वगुण-प्रधान होकर वह ब्रह्मा के रूप में सृष्टि-कार्य करता है, रजोगुणप्रधान होकर वह विष्णु रूप में सृष्टि की रक्षा करता है और तमोगुणप्रधान होकर वह शंकर या रुद्र के रूप में सृष्टि का संहार करता है (द्रष्टव्यः भागवत पुराण- 1/3/2, 3/7/28, 4/1/27)। प्रशम खपद 39
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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