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________________ संनिवेश्य मनो यस्मिन् श्रद्धया मुनयोऽमलाः । त्रैगुण्यंदुस्त्यजं हित्वा सद्यो यातास्तदात्मताम्॥ अर्थात् ब्राह्मण के तिरस्कार के कारण सगर-पुत्र भस्म हो गए थे, गंगा के जल का स्पर्श पाकर वे स्वर्ग चले गए। जब गंगा-जल से शरीर की राख का स्पर्श हो जाने मात्र से सगर-पुत्रों को स्वर्ग-गति प्राप्त हो गई तो जो लोग श्रद्धा से गंगा का स्मरण करें तो उनके बारे में तो कहना ही क्या? यह कोई आश्चर्य नहीं है, क्योंकि गंगा भगवान् (अनन्त) के चरण-कमलों से निकली है, जिनका श्रद्धा के साथ चिन्तनस्मरण-ध्यान करने से बड़े-बड़े मुनि निर्मल हो जाते हैं और तीनों गुणों के कठिन बन्धनों को तोड़कर तुरन्त भगवत्स्वरूप प्राप्त कर लेते हैं। फिर गंगाजी संसार का बन्धन काट दें- इसमें कोई बड़ी बात नहीं। वैदिक पुराण के उपर्युक्त निरूपण से साम्य रखता हुआ जैन साहित्य का एक सन्दर्भ यहां मननीय है: वरवेदीपरिखित्ते चउगाउरमंदिरम्मि पासादे । रम्मुज्जाणे तस्सिं गंगा देवी सयं वसइ॥ भवणोवरि कूडम्मि य जिणिंदपडिमाओ सासदरिधीओ। चेटुंति किरणमंडल-उज्जोइदसयलआसाओ॥ आदिजिणप्पडिमाओ ताओ जडमउडसेहरिल्लाओ। पडिमोवरिम्मि गंगा अभिसित्तुमणा व सा पडदि॥ पुफिंदपंकजपीढा कमलोदरसरिसवण्णवरदेहा। पढमजिणप्पडिमाओ सरंति जे ताण देति णिव्वाणं॥ (आ.यतिवृषभ-कृत तिलोयपण्णत्ति, 4/228-31) अर्थात् उत्तमवेदी से वेष्टित, चार गोपुर एवं मन्दिर से सुशोभित और रमणीय उद्यान से युक्त भवन में गंगा देवी का
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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