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________________ हुआ । फलस्वरूप गंगा भी लोक में महनीय मानी जाने लगी । भागीरथ मुनि गंगा-तट पर तप करते-करते सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए । (आ. गुणभद्र कृत उत्तरपुराण, 48 / 16-141)। इस कथा में गंगा के विष्णु के पावन चरणों से स्पृष्ट होने की वैदिक मान्यता (द्रष्टव्यः- भागवत 8 / 21 / 3-4 ) की प्रतिच्छाया दृष्टिगोचर हो रही है । घोर तपस्वी और अन्त में परामात्म रूप पाने वाले भागीरथ मुनि के पावन-चरण-जल से संयुक्त होकर गंगा पावन हो गई - यह जैन परम्परा का भाव है । जैन पौराणिक युग में आते-आते गंगा को जिनेन्द्र-कीर्ति की तरह पूज्य, जगत्पावनी व संतापहारिणी वर्णित किया गया है (द्रष्टव्य आदिपुराण 26 / 129,15) । जैन परम्परा में माना गया है कि गंगा महानदी 14 हजार नदियों से संयुक्त होकर समुद्रगामिनी होती है। इस महानदी के मार्ग में ही, गंगाप्रपातकुण्ड स्थित है, उस कुण्ड के मध्य में 'गंगाद्वीप' है जो एक शाश्वत द्वीप है । इसी द्वीप के एक विशाल भवन में 'गंगा देवी' का निवास है (जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति 4/ 74, तिलोयपण्णत्ति, 4/228 आदि) । अन्त में, दोनों परम्पराओं में गंगा की पावनता के सम्बन्ध में एक-एक सन्दर्भ प्रस्तुत करना यहां प्रासंगिक होगा। वैदिक परम्परा के भागवत पुराण (9/9/13-15) में गंगा-सम्बन्धी निरूपण इस प्रकार प्राप्त होता है यज्जलस्पर्शमात्रेण ब्रह्रादण्डहता अपि । सगरात्मजा दिवं जग्मुः केवलं देहभस्मभिः ॥ भस्मीभूताङ्गसङ्गेन स्वर्याताः सगरात्मजाः । किं पुनः श्रद्धया देवीं ये सेवन्ते धृतव्रताः ॥ ना ह्येतत्परमाश्चर्यं स्वर्धुन्या यदिहोदितम् । अनन्तचरणाम्भोजप्रसूताया भवच्छिदः ॥ प्रथम खण्ड 37
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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