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________________ - अर्थात् जम्बूद्वीप के अन्य सात क्षेत्रों में उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी- ये दोनों कालचक्र प्रवर्तित नहीं होते, मात्र भारतभूमि (कर्मभूमि) में ही द्विविध कालचक्र-व्यवस्था मान्य है। (कर्मभूमि की अवधारणाः) जैन परम्परा में जम्बूद्वीप में तीन कर्मभूमियां मानी गई हैं- भरत, ऐरावत तथा महाविदेह (कुछ भाग) (द्र. ठाणांग-3/3/ 183) शेष क्षेत्रों में भोगभूमि की व्यवस्था है (राजवार्तिक- 3/37/14)। वर्तमान भारतवर्ष 'कर्मभूमि' के अन्तर्गत है। कर्मभूमि वह होती है जहां लोग कृषि, असि, मषी आदि कर्मों के द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते हैं (राजवार्तिक- 3/37/3)। यहां के ही लोग पुण्यपापानुसार स्वर्गादि गतियों में तथा कर्म-क्षय कर मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। वैदिक परम्परा में भी भारतभूमि को कर्मभूमि के रूप में मान्यता दी गई है (द्र.मार्कण्डेय पुराण-55/2-21, अग्निपुराण-118/2 आदि)। (विष्णुपुराण- 2/3/1-5) में कर्मभूमि के सम्बन्ध में निम्नलिखित सम्दर्भ प्राप्त होता है: उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् । वर्ष तद् भारतं नाम, भारती यत्र सन्ततिः॥ नवयोजनसाहस्रो विस्तारोऽस्य महामुने। कर्मभूमिरियं स्वर्गमपवर्गं च गच्छताम् ।। अतः सम्प्राप्यते स्वर्गो मुक्तिमस्मात् प्रयान्ति वै। तिर्यक्त्वं नरकं चापि यान्त्यतः पुरुषा मुने। इतः स्वर्गश्च मोक्षश्च, मध्यं चान्तश्च गम्यते। न खल्वन्यत्र मानां कर्मभूमौ विधीयते॥ अर्थात् समुद्र के उत्तर और हिमाचल के दक्षिण में स्थित भारतवर्ष का विस्तार नौ हजार योजन है। यह स्वर्ग और मोक्ष जाने वाले लोगों की कर्मभूमि है। इसी कर्मभूमि से मनुष्य स्वर्ग व
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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