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________________ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा काश्चित्पापमाचरेत् ॥ . (जैन आचार्य हरिभद्रकृत धर्मबिन्दु प्रकरण, 72) - सभी लोग सुखी हों, सभी नीरोग हों, सभी मंगलमय देखें- अनुभव करें और कोई (परपीडाकारी) पाप न करे। (4) कालचक्र व सांस्कृतिक विकास की मान्यताएं (कालचक्रः) काल की उपमा चक्र से दी जाती है। गाड़ी के पहिये की तरह काल भी घूमता रहता है। इसलिए उसका जो भाग कभी ऊपर रहता है, वह बाद में नीचे आ जाता है। यह निरन्तर परिवर्तन का प्रतीक है। इसलिए कभी सुख, समृद्धि-उन्नति की दशा होती है तो कभी दुःख, दरिद्रता व अवनति/हास की। जैन परम्परा में काल-चक्र के दो भाग माने गए हैं जो क्रमशः अनादि काल से प्रवर्तित होते रहे हैं। वे भाग हैं-(1) उत्सर्पिणी, और (2) अवसर्पिणी। उत्सर्पिणी के बाद अवसर्पिणी और पुनः उत्सर्पिणी- इस प्रकार अनन्त चक्र चलता रहता है। ___ उत्सर्पिणी चक्र उन्नतिमुखी होता है, अर्थात् इसमें जीवों की आयु, बल, आकार, पराक्रम व सुख-समृद्धि क्रमशः बढती चली जाती हैं। इसके विपरीत, अवसर्पिणी कालचक्र में ये क्रमशः हासमुखी होती हैं। इन्हें शुक्ल पक्ष व कृष्णपक्ष की तरह भी समझा जा सकता है। (द्र. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-2 वक्षस्कार, तिलोयपण्णत्ति-4/1614, जैन पद्मपुराण3/73 आदि) वैदिक परम्परा के विष्णुपुराण में भी उक्त व्यवस्था का समर्थन करते हुए लिखा है कि कर्मभूमि में उक्त द्विविध व्यवस्था प्रवर्तमान रहती है, भोगभूमियों में नहीं अवसर्पिणी न तेषां वै, नैव चोत्सर्पिणी द्विज। न त्वेषामस्ति युगावस्था, तेषु स्थानेषु सप्तसु॥ ___ (विष्णु पुराण, 2/4/13) प्रथम सर 29
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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