SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 510
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अभिमत धर्म और संस्कृति का मतेक्य सदियों से रहा है। विचारकों के शब्द पृथक हो सकते हैं, किन्तु मानव कल्याण की भावना और जीवन का परितोष कभी नहीं बदलता। प्रत्येक युगीन विचारक ने इसे एक नया मुहावरा कुछ नये शब्द देकर आगे बढ़ाया है। प्रस्तुत पुस्तक में भी समन्वयी धर्म प्रभावक आचार्य श्री सुभद्र मुनि जी म. ने भारतीय मनीषा की वैदिक एंव जैन संस्कृतियो के इन्हीं समन्वयी बिन्दुओं को रेखांकित किया है जिनका मूल कहीं न कहीं एक ही है। इस शोध आचार्य श्री जी ने में उदाहरणों के साथ विस्तार से एक एक विषय को समझाते हुए ऐसा सेतु बनाने की कोशिश की है। जिसकी आवश्यकता सदैव रहती है। इन विचारों के हार्द में आचार्य श्री जी का प्रयास यह है कि इन विचारों को विचारक जब भी चिन्तन करें तो उसके आधार बिन्दुओं को अनदेखा न करें। हमें आशा है कि आचार्य श्री द्वारा प्रस्तुत यह विचार तल समन्वय की धारा को, लिएकता को भी मजबूत -प्रकाशक यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन 4637/20, अंसारी रोड, दरियागंज नई दिल्ली -110002
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy