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रही है कि वह लौकिक अभ्युदय के साथ-साथ पारलौकिक निःश्रेयस का भी साधन बनता है (द्र. यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः, वैशेषिक सूत्र- 1/1/1 ) । निष्कर्षतः, चाहे सामाजिक व्यवहार या नैतिक सदाचार हों या चाहे आत्मोत्थान की आध्यात्मिक साधना का मार्ग हो, 'धर्म' सर्वत्र मार्गदर्शक रहता है।
वैदिक व जैन- दोनों ही परम्पराओं ने एकमत से अहिंसा को परम धर्म स्वीकार करते हुए कहा- अहिंसा परमो धर्मः (महाभारत- 3/27/74, लाटी संहिता- 1 /1) । जैन धर्म की तो अहिंसाप्रधानता सर्वविदित है ही । 'अहिंसा' का एक व्यापक अर्थ यहां लिया गया है । सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य आदि नैतिक आचार के मानदण्ड हों, या मैत्री, करुणा, क्षमा, दया, परोपकारप्रियता, सन्तोषवृत्ति, दान व त्याग की भावना, उदारता, सहिष्णुता जैसी प्रशस्त मानवीय भावनाएं हों, वे अहिंसा धर्म रूपी महावृक्ष की शाखा प्रशाखाएं ही मानी गई हैं । वैदिक व जैन- दोनों धर्मों में उपर्युक्त बुनियादी नैतिक मूल्यों व सदाचार के मानदण्डों को पूर्णतः स्वीकारा गया है। इस सत्य के समर्थक अनेकानेक सन्दर्भ-वाक्य प्रचुर मात्रा में दोनों परम्पराओं के साहित्य में उपलब्ध होते हैं ।
(पुरुषार्थ चतुष्टय की मान्यता :-)
भारतीय संस्कृति में चार पुरुषार्थों की अवधारणा मान्य रही है । वे चार पुरुषार्थ हैं - ( 1 ) धर्म (2) अर्थ, (3) काम, और (4) मोक्ष | मोक्ष व्यक्ति का अन्तिम लक्ष्य है । धर्म-अर्थ-काम का त्रिवर्ग मोक्ष का साधन है । पुरुषार्थों में मानव-जीवन का उद्देश्य अन्तर्निहित है | अर्थ व काम- • इनकी साधना धर्म-संगत ही होनी चाहिए। इन पुरुषार्थों की साधना करते हुए मानव अपनी जीवनयात्रा को सुचारु रूप से मर्यादित व सुरक्षित बनाता है (द्रष्टव्यः मनुस्मृति- 2/224, 6/87, महाभारत - 12 / 167 अध्याय, 12/27/24-27, 3/313/11-12 आदि) ।
प्रथम खण्ड / 27