SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 2) - अर्थात् यह एक रहस्य की बात आप लोगों को बता रहा हूं कि मनुष्य जन्म से अधिक कोई अन्य श्रेष्ठ नहीं है । परम्परा भी इसी स्वर में उद्घोषित किया- माणुस्सं खु दुल्लहं (उत्तराध्ययन- 2 / 11 ), अर्थात् मनुष्य-य -योनि प्राप्त करना निश्चय ही दुर्लभ है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि मनुष्य मात्र की श्रेष्ठता मानी गई है, किसी जाति विशेष की श्रेष्ठता नहीं है। दोनों परम्पराएं इस सत्य की उद्घोषणा करती हैं कि मनुष्य मात्र एक ही जाति है, इसमें छोटे-बड़े का भेद नहीं है । महाभारतकार ने इसी का समर्थन करते हुए कहा- न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्राह्ममिदं जगत् (महाभारत-12/188/1 ) - अर्थात् वर्णों के आधार पर (ब्राह्मण आदि) कोई भेद नहीं है, सभी जगत् ब्रह्ममय है । जैन परम्परा का भी इसी दिशा में चिन्तन-प्रवाह प्रवर्तित हुआ है - मनुष्यजातिरेकैव (आ. जिनसेन -कृत महापुराण - 38/45) अर्थात् मनुष्य जाति एक ही है। इसी क्रम में यह भी कहा गया - नास्ति तिकृतो भेदः (महापुराण-74/492) अर्थात् जाति-कृत भेद (वास्तविक ) नहीं है, तथा एगा मणुस्स-जाई (आचारांग - नियुक्ति- 19 ) अर्थात् मनुष्य जाति एक है। (3) साझे बुनियादी नैतिक मूल्य और सदाचार के मानदण्ड भारतीय संस्कृति का प्राण 'धर्म' रहा है । धर्म से अनुप्राणित होकर ही वह प्रवर्तित होती रही है। सामाजिक विकास या उन्नति की दृष्टि से 'धर्म' ने एक संजीविनी शक्ति का कार्य किया है। मानव-जीवन के विकास या सांस्कृतिक उत्थान के लिए जो भी नियम व मर्यादाएं आवश्यक व उपयोगी प्रतीत होती हैं, उन सब को 'धर्म' अपने में समेटे हुए है। वह लौकिक दृष्टि से सर्वविध अभ्युदय का प्रमुख आधार रहा है। भारतीय धर्म की यह विशेषता जैन धर्म एवं वैदिक धर्म की सास्कृतिक एकता / 26
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy