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________________ दुर्गतिप्रसृतान् जीवान् यस्माद्धारयते यतः। । धत्ते चैतान् शुभस्थाने, तस्माद् धर्म इति स्मृतः॥ (दशवैकालिक चूर्णि, पृ.15) वैदिक परम्परा में धर्म के । भेद माने गए हैं- धृति, क्षमा, दम (मनःसंयम), अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी (शास्त्रादि तत्त्वज्ञान), विद्या (आत्म-ज्ञान), सत्य व अक्रोधः धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । धीविद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥ (मनुस्मृति, 6/92) जैन परम्परा में भी शान्ति(क्षमाशीलता), मुक्ति (अनासक्ति), आर्जव (सरलता), मार्दव (मृदुता), लाघव (नम्रता), सत्य, संयम, तप, त्याग व ब्रह्मचर्य- इन दस धर्मों को मान्य किया गया है: दसविधे समणधम्मे पण्णत्ते। तं जहा- खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे, लाघवे, सच्चे, संजमे, तवे, चियाए, बंभचेरवासे (स्थानांग-1/ 16 ; समवायांग-1)। दोनों परम्पराओं के उक्त दश धर्मों में नामभेद को गौण करें तो भावात्मक दृष्टि से इनमें पर्याप्त समानता ही है। धर्माचरण की प्रेरणा दोनों परम्पराओं में प्रचुर रूप से और प्रखर रूप से दी गई है। वैदिक उपनिषद् का उद्घोष है- धर्मं चर (तैत्तिरीय उप. 1/11/1) अर्थात् धर्म को आचरण में उतारो । इसी मनोभावना का जैन परम्परा भी समर्थ करती है- धम्मं चर (उत्तराध्ययन सूत्र-18/3)। 2. मनुष्य योनि की श्रेष्ठता व दुर्लभताः दोनों परम्पराएं प्राणि -जगत् में मनुष्य की श्रेष्ठता की उद्घोषणा करती हैं। महाभारतकार ने स्पष्ट उद्घोषणा की- गुह्यं ब्रह्म तदिदं ब्रवीमि, न मानुषाच्छ्रेष्ठतरं हि किञ्चित् (महाभारत, 12/299/ प्रधम राणा 75 - MAIR MIRI
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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