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________________ विद्वद्भिः सेवितः सद्भिः, नित्यमद्वेषरागिभिः । हृदयेनाभ्यनुज्ञातः, यो धर्मस्तं निबोधत॥ उपर्युक्त मान्यता जैन परम्परा की मान्यता के पर्याप्त निकट/ अनुकूल थी। महाभारत में तो एक जगह यहां तक कहा गया कि श्रुतियां भिन्न-भिन्न व अनेक हैं, आखिर किसे प्रमाण मानें, धर्म का रहस्य गूढ ही है, अतः महापुरुष जिसका आचरण करें, उसे ही अपनाएं (महाभारत- 3/3/113) इस कथन से सामान्य जन के लिए महापुरुषों के आचार को ही धर्म का प्रकाश-स्रोत मानने का परामर्श दिया गया प्रतीत होता है। (सांस्कृतिक एकता के धरातल पर) सार्वजनीन आस्था के विचार-बिन्दु उपर्युक्त वैचारिक समन्वय की पृष्ठभूमि में जिस एक साझी संस्कृति का सूत्रपात हुआ, उसमें विद्यमान समान आस्था वाले विचार-बिन्दुओं का दिग्दर्शन कराना यहां उपयुक्त होगा। 1. धर्म की अवधारणा : धर्म का स्वरूप एक है, उसका साम्प्रदायिक स्वरूप भिन्नभिन्न हो जाता है। जैन व वैदिक- दोनों ही परम्पराओं ने धर्म की परिभाषा एक जैसी ही स्वीकार की है। वह है- 'धारणाद् धर्मः' अथवा 'धत्ते इति धर्मः' । धर्म नीचे गिरने से बचाता है, साथ ही उन्नति की ओर ले जाता है। वैदिक परम्परा के महाभारत का एक वचन है धारणाद् धर्म इत्याहुः, धर्मो धारयते प्रजाः। यः स्याद् धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः॥ (महाभारत-8/69/58,12/19/11) जैन परम्परा का भी वचन उपर्युक्त भाव का ही समर्थन करता है: - जैन धर्म एतं वैदिक धर्म की सारकृतिक एकता/24
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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