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अंत में, हनुमन्नाटक (1/3) में उक्त विचारधारा को प्रौढरूप इस प्रकार दिया गया
यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनो बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्तेति नैयायिकाः। अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः कर्मेति मीमांसकाः सोऽयं वो विदधातु वाञ्छितफलं त्रैलोक्यनाथो हरिः॥
अर्थात् त्रिलोकीनाथ परमेश्वर हरि- जिसकी उपासना शैव लोग 'शिव' रूप में, वेदान्तमतानुयायी ‘ब्रह्म' रूप में, बौद्ध लोग 'बुद्ध' रूप में, प्रमाणदक्ष नैयायिक सृष्टिकर्ता-ईश्वर के रूप में, जैनधर्मानुयायी अर्हन्त देव के रूप में, और मीमांसक लोग 'कर्म' के रूप में करते हैं- वह हम (आप) सभी को वांछित फल प्रदान करे।
उपर्युक्त विचारधारा ने सभी विचारधाराओं में परस्पर सहगामिनी होने का गौरव जागृत किया और सांस्कृतिक क्षेत्र में समन्वय की उदार प्रवृत्ति को और भी अधिक दृढ किया।
8. धर्म का प्रामाणिक स्रोत:
वैदिक परम्परा 'धर्म' के उपदेश का स्रोत (वेद) को मानती है। (मनुस्मृति. 2/6,13, महाभारत (3/25/41) जैन परम्परा में वीतरागसर्वज्ञ तीर्थंकर ही 'धर्म' के मूल उपदेष्टा माने जाते हैं । (धम्मतित्थयरे जिणे-चतुर्विंशतिस्तव सूत्र, भक्तामर स्तोत्र-25,35 आदि) और जिनवाणी के आधार पर धर्म-अधर्म का निर्णय किया जाता है।
वैदिक परम्परा की उदारवादी विचारधारा ने 'वेद' के अतिरिक्त महापुरुषों के सदाचार को तथा आत्म-तुष्टि आदि को भी धर्म-स्रोत वधर्म-लक्षण के रूप में मान्य किया (द्र. मनुस्मृति 2/12)। इतना ही नहीं, वीतराग महापुरुषों द्वारा सेवित आचार को भी धर्म के रूप में मान्यता दी गई (मनुस्मृति, 2/1) :
प्रथम खण्ड/23