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काल बड़ा बलवान् है। कितने ही बड़े-बड़े शूरवीर, राजेमहाराजे, विशाल राजपाट कालकवलित होकर नष्ट हो गए, आज उनका नामों निशान भी नहीं है। काल की गति को कोई आज तक नहीं रोक पाया है। व्यक्ति के जीवन में जवानी, बुढ़ापा या मृत्यु की स्थितियां गतिशील काल के पदचिन्ह हैं। जीवन में अक्षमता, अस्वस्थता या मृत्यु की काली छाया मंडराए, उसके पूर्व ही धर्माराधना कर आत्मकल्याण कर लेना श्रेयस्कर है। वैदिक व जैन-इन दोनों धर्मों के आचार्यो/गुरुओं ने उक्त सत्य को एकस्वर से उद्घोषित किया है
(1)
जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई। धम्मंच कुणमाणस्स, सफला जन्ति राइओ॥
(उत्तराध्ययन सूत्र- 14/25) (2) अत्येति रजनी या तु, सान प्रतिनिवर्तते।
(वाल्मीकि रामायण-2/106/19) - जो रात गुजर जाती है, वह फिर लौटकर नहीं आती।
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