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-निरन्तर धर्मश्रवण की इच्छा (सुश्रूषा) बोध रूपी जल के स्रोत की सिरा/भूमिवर्ती जलनालिका के समान है। इसके अभाव में सारा पूर्व-ज्ञान उस कुएं की तरह व्यर्थ है, जो जलनालिका-रहित भूमि में बना हुआ है।
(4) अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वाऽन्येभ्य उपासते। तेऽपि चातितरन्त्येव, मृत्युं श्रुति-परायणाः॥
(गीता-13/25) ___ -जो नहीं जानते हैं, वे जानने वालों से सुनकर तत्त्व का विचार करते हैं । जो सुनने (धर्मश्रवण) में तत्पर रहते हैं, वे मृत्यु को तर जाते हैं।
(5) श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।
(पंचतंत्र-3/104) -धर्म के सार को सुनें और सुनकर उसे निश्चित करें।
(6)
श्रोतव्यं खलु वृद्धानामिति शास्त्रनिदर्शनम्।
(महाभारत,5/168/26) - वृद्ध (ज्ञानी) व्यक्तियों को सुनना चाहिए, -ऐसा शास्त्र का
निर्देश है।
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आत्म-कल्याण के भवन में प्रविष्ट होने के लिए प्रथम द्वार धर्म-श्रवण का हैइस मान्यता को वैदिक व जैन- दोनों धर्मों ने समान रूप से स्वीकारा है।