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(2) स्तोकं स्तोकं ग्रसेद्ग्रासं देहो वर्तेत यावता। गृहानहिंसन्नातिष्ठेद, वृत्तिं माधुकरी मुनिः॥
(भागवत पुराण, 11/8/9) -संन्यासी को चाहिए कि वह गृहस्थों को किसी प्रकार का कष्ट न देकर भौरों की तरह अपना जीवन निर्वाह करे। वह अपने शरीर के लिए थोड़ा-थोड़ा भोजन कई घरों से ले।
(3) यथा मधु समादत्ते, रक्षन् पुष्पाणि षट्पदः। तद्वदर्थान्मनुष्येभ्यः, आदद्याद्अविहिंसया॥
(महाभारत, 5/34/17) - भौंरा फूलों की रक्षा करता हुआ जैसे मधु-संग्रह करता है, वैसे ही राजा मधुकरी वृत्ति से किसी को कष्ट नहीं देता हुआ प्रजा से धनसंग्रह करे।
भारतीय संस्कृति की दोनों धाराओं- वैदिक व जैन परम्परा में अहिंसा को जीवन के विविध प्रसंगों में महनीय स्थान दिया गया है। भिक्षु/ मुनि की भिक्षावृत्ति हो या राजा की कर-वसूली, सर्वत्र अहिंसक रीति अपनाने की प्रेरणा दी गई है। मधुकर का रस-ग्रहण अहिंसक वृत्ति के सन्दर्भ में दृष्टान्त के रूप में मान्य किया गया है। यह दृष्टान्त प्रसंग के अनुरूप व सटीक है।
Jitu खण्ड/437