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________________ 108800000000000000000000000000888 मधुकटी वृत्ति 3000000000000000000000000006... भ्रमर का स्वभाव है कि वह किसी एक फूल से बंधकर नहीं रहता। वह रस-ग्रहण अनेक फूलों से करता है। इस भ्रामरी वृत्ति की एक विशेषता उल्लेखनीय है। वह यह है कि वह किसी भी फूल से थोड़ा-थोड़ा रस इतनी ही मात्रा में लेता है जितना लेने से फूल को कोई क्षति नहीं पहुंचती। वैदिक परम्परा में महर्षि दत्तात्रेय के अनेक गुरुओं में 'भ्रमर' की भी गणना की गई है। उन्होंने भ्रमर से यह शिक्षा ली थी कि किसी को बिना कष्ट दिये ही अपनी भिक्षा को प्राप्त किया जाय। (द्रष्टव्यः भागवत पुराण-11/8/9)। इसीलिए वैदिक व जैन-इन दोनों धर्मों में प्रत्येक साधु या मुनि के लिए यह अपेक्षित माना गया है कि वह मधुकरी/भ्रामरी वृत्ति अंगीकार कर भिक्षा ग्रहण करे। इसी तरह, राजा के लिए भी नीतिकारों द्वारा यह निर्देश दिया जाता रहा है कि कर/टैक्स की वसूली में भी यह मधुकरी वृत्ति अपनाई जाये। (1) जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो आवियइ रसं। न य पुष्पं किलामेइ, सोय पीणे, अप्पयं॥ (दशवैकालिक सूत्र-1/2) - भौंरा जैसे वृक्ष के पुष्पों को संक्लेश नहीं देता हुआ रस ग्रहण करता है, अपने को परितृप्त करता है, वैसे ही साधु अपनी जीवन-यात्रा निभाए, भिक्षा ग्रहण करे। जैन धर्मोदिक धर्म की सालतिरकता 436
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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