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(2) रागद्वेषप्रहीणस्य त्यागो भवति नान्यथा।
(महाभारत, 12/160/17) - राग व द्वेष से रहित (पूर्ण-वीतरागता-समता से सम्पन्न) व्यक्ति का त्याग ही 'त्याग' है, अन्य का नहीं।
(3) ते वन्द्यास्ते महात्मानस्त एव पुरुषा भुवि। ये सुखेन समुत्तीर्णाः, साधो ! यौवन-संकटम्॥
(योगवाशिष्ठ-2/88) - जो आसानी से यौवन के संकट को पार कर जाते हैं, वे ही पुरुष इस धरा पर वन्दनीय हैं, महात्मा हैं।
(4)
समलेठुकंचणो भिक्खू।
(उत्तराध्ययन सूत्र-35/13) -भिक्षु पत्थर और सोने को समान देखता है।
(5) समलोष्टाश्मकाञ्चनः।
(गीता-14/24) -योगी (गुणातीत) वही है, जो पत्थर और सोने में समबुद्धि
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रखता है।
रासस
जैन व वैदिक- इन दोनों धर्मों में त्याग को समान रूप से, समान वैचारिक पृष्ठभूमि में व्याख्यायित किया गया है। दोनों ही धर्मों में भोगप्रधान प्रवृत्ति की जगह, त्यागप्रधान प्रवृत्ति को महनीयता दी गई है।
तृतीय खण्ड/435