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________________ HB0008 88000000000000 त्याग एक सर्वश्रेष्ठ गुण है। किन्तु उसकी श्रेष्ठता या महनीयता तभी संभव है जब त्याग किसी पराधीनता में नहीं किया गया हो। वृद्धावस्था में जब इन्द्रियां शिथिल हों, तब व्यक्ति विषय-सेवन का त्याग करने को विवश हो जाता है। वह त्याग पराधीनता में किया गया होता है, अत: यथार्थ में वह 'त्याग' नहीं है। एक निर्धन व्यक्ति बहुमूल्य वस्तु नहीं खरीद सकता, अत: उसके द्वारा बहुमूल्य वस्तुओं का त्याग भी यथार्थ में 'त्याग' नहीं है। जब त्याग में समत्व दृष्टि का आधार हो तो यह सोने में सुहागे की तरह अधिक प्रशंसनीय हो जाता है। ऐसी स्थिति में किसी वस्तु को बहुमूल्य, अधिक उपयोगी आदि समझ कर नहीं, अपितु अन्य वस्तुओं की तरह सामान्य समझ कर त्यागा जाता है। तब, सोने में और पत्थर में भेद-दृष्टि नहीं रहती। ऐसी स्थिति में पहुंचा व्यक्ति पत्थर को जैसे छोड़ता है, वैसे ही सुवर्ण को छोड़ता है। त्याग व त्यागी के यथार्थ स्वरूप के विषय में जैन व वैदिकइन दोनों धर्मों में एक जैसी विचारधारा प्रवर्तित है। (1) जे यकंते पिये भोये, लद्धे विप्पिछि कुव्वइ। साहीणे चयइ भोये, से हु चाइत्ति वुच्चइ॥ ___ (दशवैकालिक सूत्र-13) - जो मिले हुए कान्त एवं प्रिय भोगों को स्वाधीनता से ठुकराता है,वही सच्चा त्यागी है। Kजनदिक धर्म की सावकि किता,434
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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