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तीर्थानां हृदयं तीर्थं शुचीनां हृदयं शुचि।
(महाभारत, 12/186/17) - समस्त तीर्थों का हृदय (प्राणभूत) तीर्थ है-शुद्धात्माओं का शुद्ध अन्त:करण।
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दैनिक जीवन में प्रतिदिन स्नान की उपयोगिता सर्वविदित है। किन्तु ज्ञानीविवेकी मनीषियों की दृष्टि में शारीरिक स्नान की अपेक्षा मानसिक स्नान को अधिक श्रेयस्कर व श्रेष्ठ माना गया है। इस आध्यात्मिक/मानसिक स्नान के द्वारा पवित्र होकर ही साधना के क्षेत्र में अग्रसर हुआ जा सकता है-इस सत्य को वैदिक व जैन -दोनों धर्मों ने समान रूप से एकस्वर से उद्घोषित किया है।
जैन धर्म पदिक धर्म की सांस्कृतिक एकता/426K