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________________ (2) शास्त्रावगाहपरिघट्टनतत्परोऽपि, नैवाबुधः समभिगच्छति वस्तुतत्त्वम्। नानाप्रकारसभावगताऽपिदर्वी, स्वादस्सस्यसुचिरंन हिवेत्तिकिंचित्॥ (सूत्रकृतांग सूत्र-वृत्ति) ___ - मात्र शास्त्रों में डूबे रहने वाला अज्ञानी व्यक्ति वस्तु-तत्त्व से उसी प्रकार अपरिचित रहता है, जिस प्रकार चिरकाल पर्यन्त विविध सरस पदार्थों में डूबी हुई कडुछी (चम्मच) उनके स्वाद से अनभिज्ञ रहती है। (3) यस्य नास्ति निजा प्रज्ञा केवलंतु बहुश्रुतः। न स जानाति शास्त्रार्थ दर्वी सूपरसानिव॥ __ (महाभारत, 2155/1) -- जिसके पास अपनी बुद्धि नहीं है, केवल रटन्त विद्या से बहुश्रुत हो गया है, वह शास्त्र के मूल तात्पर्य को नहीं समझ सकता, ठीक उसी तरह जैसे कलछी दाल के रस को नहीं जानती। - (4) हयं नाणं कियाहीणं। (विशेषावश्यक भाष्य-1159) -क्रियाहीन कोरा ज्ञान विनष्ट (हुए जैसा) हो जाता है। (5) वृत्ततस्तु हतो हतः। (महाभारत, 5/36/30) - चारित्र (सदाचार) से भ्रष्ट होने पर व्यक्ति स्वयं नष्ट हो जाता है। 88888888888888 ज्ञानी के ज्ञान की सार्थकता इसी में है कि वह सदाचारी भी हो। इस मान्यता को वैदिक व जैन दोनों धर्मों में स्वीकारा गया है। यह तथ्य उपर्युक्त उद्धरणों में मुखरित हुआ है। ijiltय स्व05/423
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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