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________________ आचरण व्यवहार में हम देखते हैं कि मात्र ज्ञान से अभीष्ट की सिद्धि नहीं होती, उसके लिए तदनुरूप आचरण भी आवश्यक होता है। अग्नि' सम्बन्धी ज्ञान से रसोई का भोजन नहीं पक सकता है, अपितु अग्नि जलाकर उस पर खाद्य पदार्थ रखने व पकाने की क्रिया सम्पन्न करने से ही भोजन बनाया जा सकता है। इसी तरह, दवा के गुण आदि जानने से रोग नहीं दूर हो सकता, बल्कि दवा को खाने से ही रोग मिट सकता है। धार्मिक क्षेत्र में भी तात्त्विक ज्ञान के साथ-साथ तदनुरूप सदाचार का होना भी जरूरी है। इसीलिए कहा गया है-ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः, अर्थात् ज्ञान व क्रिया- इनके समन्वय से ही मोक्ष प्राप्त हो सकता है। आचरणहीन ज्ञानी व्यक्ति ज्ञान-निधि का स्वामी होते हुए भी उस गधे के समान है जो चन्दन की लकड़ियों का भार ढोता हुआ भी उसकी शीतलता से लाभान्वित नहीं हो पाता। वैदिक व जैन- दोनों धर्मों ने उक्त चिन्तन को समर्थन दिया है। (1) जहा खरोचंदणभारवाही, भारस्स भागी नहुचंदणस्स। एवंखुणाणी चरणेण हीणो, भारस्स भागीण हुसुग्गईए॥ __ (विशेषावश्यक भाष्य-1158) ___- जैसे चन्दन का भार ढोने वाला गधा केवल भार का ही भागी होता है, चन्दन की सौरभ व शीतलता उसे नहीं मिलती। उसी प्रकार, आचरणहीन व्यक्ति का ज्ञान भी केवल भार रूप ही है, सुगति का दाता नहीं। जैन धर्म एकदिक धर्म की सांस्कृतिक एकता/4221
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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