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सुरवल्यान्ति
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सुख-शान्ति का जीवन जीएं-यह सभी की अभिलाषा रहती है। किन्तु संसार है तो समस्याएं हैं, और समस्याएं सुख व शांति के स्थान पर दुःख व अशान्ति पैदा करती हैं। वास्तव में, यदि सुख-शान्ति पाना है तो दुःख व अशान्ति के मूल कारणों को जानकर उनका निराकरण करना होगा। भारतीय धर्माचार्यों ने दुःख के मूल को पहचाना था। ममत्व, आसक्ति, अहंकार आदि मनोविकार ही दुःख व अशान्ति के मूल कारण हैं। यदि सुख व शान्ति पाना है तो ममत्व आदि विकारों पर विजय पाना तथा उन्हें निर्बल व निर्मूल करना आवश्यक है। प्रायः भौतिक साधनों को सुख-शान्ति का साधन समझा जाता है। किन्तु वे साधन व्यक्ति को संतुष्टि नहीं दे पाते, और दुःख के कारण बनते हैं। उपर्युक्त शाश्वत सत्य की उद्घोषणा में जैन व वैदिक -दोनों धर्मों की सहभागिता रही है।
(1) निम्ममो निरहंकारो,वीयरागो अणासवो। संपत्तो केवलं नाणं, सासयं परिनिव्वुइ॥
(उत्तराध्ययन सूत्र-35/21) -ममत्व व अहंकार से रहित, वीतराग तथा निरास्रव होकर, केवल ज्ञान (सर्वज्ञता) पाकर जीव शाश्वत निर्वृति (सुख) में लीन हो जाता है।
जैन धर्म एन वैदिक धर्म की सांस्कृतिक एवता/420