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________________ (7) ये न हृष्यन्ति लाभेषु, नालाभेषुव्यथन्ति च। निर्ममा निरहंकाराः सत्त्वस्थाः समदर्शिनः॥ (महाभारत, 12/158/33) ___ - वे महापुरुष समत्वदृष्टि वाले होते हैं जो लाभ में कभी फूले नहीं समाते और हानि में कभी व्यथित नहीं होते, और जो ममत्व-रहित एवं निरभिमानी होते हैं। (8) समः शत्रौ च मित्रेच, तथा मानापमानयोः। शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः॥ __ (गीता-12/18-19) - शत्रु-मित्र, मान-अपमान, सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख- इन सब में जो समान रहकर आसक्ति से दूर रहता है, वह मेरा भक्त (साधक है)। समत्व श्रमण (जैन) संस्कृति का उत्स है। प्रत्येक जैन श्रमण (साधु) के लिए समत्वसम्पन्न होना अत्यावश्यक है। वैदिक संस्कृति में भी गीता के स्थितप्रज्ञ की जो अवधारणा है, वह 'समत्व' पर ही आधारित है। इस प्रकार, वैदिक व जैन-इन दोनों धर्मों में किये गये समत्व-सम्बन्धी निरूपणों में उपलब्ध विचार-साम्य के कारण एकसूत्रता व एकस्वरता मुखरित होती है, जिसकी पुष्टि उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट होती है । तृतीय तराई/419
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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